कबीर या कबीरदास ,या संत कबीर उन विरले संतो में से हैं जिनके विचार तत्कालीन परिस्थितयों की रूढ़ियों में गहरी चोट करते हैं। कबीर की साखियां और उनके दोहे हम सब बचपन से ही पढ़ते-सुनते  आ रहें हैं, इसलिए बहुत दिनों तक कबीर और मैगी में कोई भेद नही समझ मे आया होगा दोनो ही 2 मिनट में रेडी हो जाते थे । मुझे याद है ,बचपन मे हमारे स्कूल में सूक्त/दोहे/चौपाई याद करने को दिया जाता था और लास्ट पीरियड में हमसे पूछा जाता था । कबीर ,रहीम, यही थे,जो हर बार हमारे लिए संकटमोचन बन कर आ जाते थे, जबकि आचार्य जी की ये इच्छा होती कि बच्चे संस्कृत की सूक्तियां ही सुनाएं।  कबीर के दोहे  याद करने में सरल और सुलभ थे और समझने में भी, लेकिन अन्य भारी-भरकम शास्त्रो की भांति कबीर के दोहों में इतनी गहराई है कि बड़े आराम से उन पर महीनों तक चिंतन किया जा सके। जब कर्मकांडी पुरोहितों ने रूढ़ियों को पोषित किया और उलेमाओं ने बेवज़ह कुरीतियों को जना तो कबीर और रहीम जैसे उद्धारक अस्तित्व में आये। जो वही बात नरम से नरम लहज़े में कह गए जो शास्त्रों में क्लिष्ट संस्कृत में लिखी गयी थी।

जैसे एक श्लोक है  :  “अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य                                 वचन्द्वयम,परोपकाराय पुण्याय ,पापाय परपीडनम”   

इस श्लोक का अर्थ यह है कि,  “अठारह पुराणों में व्यास( वेद) जी के केवल दो वचन हैं , “परोपकार से बड़ा कोई पुण्य नही और दूसरे को कष्ट देने से बड़ा कोई पाप नही”

इसी बात को तुलसीदास जी कहते हैं :-

“परहित सरिस धरम नहि भाई, पर पीड़ा सम नही अधमाई” 

अर्थ दोनो का समान है लेकिन रास्ते अलग हैं। एक है जो देववाणी में कही गयी बात है दूसरी लोकवाणी में, इन लोक कवियों का योगदान जनमानस को सही राह दिखाने में अतुलनीय है।

कबीर , रहीम, और तुलसी की इसी नेकी को देखते हुए मैंने सोचा कबीर के एक दोहे पर मैं रोज चिंतन करूँगा और उसे परिवार के साथ साझा करूँगा। इस तरह ये एक अच्छा सत्संग भी हो जाएगा और आप सब के बीच कुछ छुपे-छुपाये कबीर के मोती भी दिख जायेंगे।

इस प्रयास के लिए सुभाशीष दें।

पढ़ने के लिए धन्यवाद🌺🌺😊

जय श्री हरि⚛️🕉️👏👏