गणेश और कार्तिक इस वातावरण से सहम गए थे इसलिए वो आपस में पूरी मार-पीट के बाद सब प्रेम से निपटा लेते थे। आपस में खूब खेल-कूद भी करते और स्वतंत्रता से जोख़िम वाली शरारतें भी करते क्यों कि कोई भी टोकने वाला नही था।

लेकिन गणेश की भूख बहुत ही कम हो गयी थी और कार्तिक के शौर्य की प्रशंसा की तरफ़ अब किसी का ध्यान नही था। उसको इन दिनों अभ्यास करने में बिल्कुल आनंद नही आता था।

और महादेव तो स्वयं माँ का ध्यान रख रहे थे। परस्पर बात-चित, हँसी मज़ाक़ और एक दूसरे को प्रेम में चिढ़ाने का दौर तो बिलकुल ख़त्म हो चुका था।

एक रात माँ करवटें लेते हुए सोच रही थी कि अगर मैं अपने काली स्वरूप से वापिस ना आयी होती तो, हो सकता था कि महादेव मौन में होते, क्या वो प्रतीक्षा कर रहे होते या फिर वो अपनी साधना के लिए कैलाश पर जा चुके होते क्यों कि वह तो परमवैरागी है, लेकिन कार्तिक और गणेश का क्या होता!

उसी क्षण माँ ने सोचा उन दैत्यों के परिवारों का क्या हुआ होगा, उनके बच्चे किस हाल में होंगे? जिन्हें युद्ध स्थल पर वीरगति प्राप्त हुई है।

माँ बेचैनी में उठ कर बाहर चली गयी और महादेव को पता भी नही चला। माँ अपनी १५ सखियों के कक्ष की तरफ़ चली गयी।

“देवी कामाक्षी, हम सभी को कहीं जाना है” माँ ने प्रेम से सोयी हुई कामाक्षी देवी के शीश पर प्रेम से हाथ फेरते हुए कहा

“आज्ञा कीजिए, मातेश्वरी” तुरंत कामाक्षी देवी ने ऐसे उत्तर दिया जैसे कि वो जाग रही थीं,“किस दिशा में?”

“दक्षिण दिशा की ओर पाताल में, दंड लोक।”

“माँ, क्या युद्ध के लिए?”

“नही प्रिय, इस बार युद्ध के लिए नही।”

सभी १५ सखियाँ और माँ दंडलोक में साधारण स्त्रीयों का वेश बना कर, अंतरध्यान होकर नही गयीं बल्कि उन्होंने भू गमन किया ताकि उनको पता चल सके कि महासंहार के बाद वहाँ  की परिस्तिथि कैसी है?

माँ ने देखा कि दंड लोक अपने नाम के अर्थ के अनुसार बहुत ही गंदा और दुर्गंध से भरा हुआ स्थल था। वहाँ निवास करना ही दंड था। स्वच्छ जल, स्वच्छ वायु, धूप आदि जीवन की मूल प्राकृतिक आवश्यकतायों के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा था। युद्ध के बाद सभी लोकपालों ने वहाँ के लिए अपने कर्तव्य पूर्ति करनी बंद कर दी थी, वे दंड लोक को अपने हिसाब से दंड दे रहे थे।

माँ ने देखा कि दैत्यों के अधिक्तर परिवार जीवन के लिए संघर्ष कर रहे थे। एक परिवार में केवल महिलायें ही रह गयी थी और दो छोटे बच्चे। उस परिवार के सभी पुरुषों को बलपूर्वक सेना में भर्ती किया गया था। उस परिवार की महिलायें अन्न के लिए भिक्षा माँग रही थीं और तिस्कृत हो रही थीं।

एक जगह देवी ने देखा कि एक छोटा बच्चा भीख माँग रहा है, क्यों कि उसकी माँ उसके जन्म के समय ही चल बसी थी और उसके पिता रण भूमि में।

एक परिवार में एक छोटी दैत्य कन्या अपनी विधवा माँ से पूछ रही थी,” माँ, क्या तुम और मैं भी देवतायों की देवी के समान शक्तिशाली हो सकतीं है, जिन्होंने देवतायों की ही रक्षा की?”

“क्या वो देवी हमारी नही है? हमारी रक्षा कौन करेगा? अगर फिर से युद्ध हुआ तो हमारी रक्षा कौन करेगा? उन्होंने केवल देवतायों की ही क्यों रक्षा की? अगर हम उनकी भी दैत्यराज जैसे पूजा करेंगे, तो क्या वो हमारी सहायता करेंगी?”

एक छोटी सी बालिका के यह प्रश्न सुनकर देवी माँ का हृदय विदीर्ण हो गया।

वहाँ का कोई अधिपति ना होने के कारण चारों ओर अराजकता, अधर्म, ग़रीबी और महामारी फैल चुकी थी।

फिर माँ ने देखा कि दंड लोक में भिन्न-२ अस्त्रों के अत्यधिक प्रयोग के कारण उपजाऊ भूमि अनंत काल के लिए बंजर हो चुकी थीं और वह लोक अभी सूखे से भी पीड़ित था। उन दैत्यों को एक ही प्रार्थना आती थी

“हे, दैत्यराज कृपा करो, हम अनाथ हो गये है। हम किस पर निर्भर करें? त्राहिमाम त्राहिमाम।“

उनके दैत्यराज के होते उन्हें जीवन की मूल समस्यायों के साथ कभी भी संघर्ष करना नही पड़ा था और आज बाक़ी बचे हुए दैत्य परिवार तिल तिल कर मरने को विवश हो गए थे।

“उनकी रक्षा करने वाला कौन है? वे भी तो मेरी ही संतान है। यह लोग उस अपराध की सज़ा भोग रहे है, जो अपराध उन्होंने किया ही नही। हो ना हो इनका कल्याण करना मेरा कर्तव्य है।” माँ ने सोचा

यह सब देखने के बाद देवी का माँ हृदय फटने को आ रहा था। वो फिर से बच्चों की भाँति रोने लगी। माँ को लगा कि सारे विनाश का एक मात्र वही कारण है।

माँ अपनी प्रिय सखियों के सहस्त्रार पर हाथ रख कर अपनी शक्ति का संचार करना शुरू किया ताकि दंड लोक की अव्यवस्था को सुचारु रूप से ठीक किया जाए।

देवी ज्वलमालिनी की एक दृष्टि से दंड लोक की गंदगी और दुर्गंध दूर हो गयी और देवी नित्यकलिन्ना ने वहाँ के लिए सूर्य नारायण की और चंद्र देव की भूमिका निभानी शुरू की। देवी भारूँड़ा ने दंड लोक की स्वच्छ वायु और देवी वहनिवासिनी वहाँ के लिए शुद्ध पेय जल धारा बनी। देवी भगमालिनी उपजायु भूमि बनी और देवी महाव्रजेश्वरी ने वहाँ के लिए आकाश का रूप धारण किया ताकि समयानुसार वहाँ पर वर्षा हो। देवी नीलपाताका ने उस स्थान के वनों, अमूल्य खनिज पदार्थों की खानों, पर्वतों, रेगिस्थान, नदियों और सागर आदि के संरक्षण के लिए वन देवी का रूप धारण किया। देवी शिवदुती ने लुप्त हुए विज्ञान को पुनः जाग्रत किया।

देवी कामेश्वरी और देवी सर्वमंगला ने दंड लोक के सभी निवासियों के मन में निवास किया ताकि उनकी मृतक मनोवस्था को एक नयी ऊर्जा प्राप्त हो। देवी चित्रा ने लोक के निवासियों का रहन-सहन का स्तर ऊँच कोटि का किया और ऐश्वर्य का निर्माण किया, देवी कुलसुंदरी ने वहाँ पर सभी प्रकार की कला और साज सज्जा का रूप धारण किया। देवी त्वरिता और देवी नित्या ने बाहरी प्रकृति और सुंदरता का रूप धारण किया ताकि उनके मन में जीवन के प्रति उमंग जाग्रत हो। और देवी विजया ने उनके मन में ईश्वर के प्रति श्रद्धा, भक्ति और सौम्य गुणों का रूप धारण किया।

यह कार्य एक घड़ी का नही था कि सब कुछ पल में बदल गया लेकिन माँ ने अपनी शक्तियों द्वारा दंड लोक एक नवीन और स्वस्थ समाज की उत्पत्ति के लिए बीजारोपण कर दिया था, अब तो बस उसको समय के साथ साथ स्फुरित होना था। लेकिन यहाँ का दृश्य देखने के बाद माँ के मन में देवतायों के लिए कुंठा बढ़ गयी थी।

“महादेव”

“गणेश”

“स्कंद”

जब माँ चिंतामणि गृह वापिस आयी तो उन्होंने पाया कि कोई भी महल में नही था।

“मातेश्वरी, सभी लोग शिवपुरी गए है।” भीम नाम के द्वारपाल ने हाथ जोड़ कर बताया

अभी भीम कुछ और कह ही रहा था कि माँ शिवपुरी की ओर तेज़ी से  चल पड़ी। माँ महादेव को बिना बताए दंड लोक गयी थी तो महादेव के वापिस आने तक की प्रतीक्षा कर नही पायी लेकिन थोड़ी हैरानी में भी थी कि आज दोनो पुत्र भी शिवपुरी गये थे। माँ अभी शिव पूरी के भवन के अंदर जा ही रही थी कि आवाज़ सुन कर द्वार पर ही देखने के लिए रुक गयी।

माँ ने देखा कि महादेव अपने पसंदीदा पेय को पीने के बाद, स्वयं को राख से लपेटे हुए गणों में खड़े थे। भिन्न प्रकार के संगीत और डमरू की लय पर सारे गण मंत्र-मुग्ध होकर नाच रहे थे।डमरू तो महादेव बजा रहे थे लेकिन नगाड़ा किसी गण का पेट था। किसी गण ने अपने दांतों से कांसे की तारें कस कर पकड़ी हुई थी तो कोई गण अपने बढ़े हुए नाखूनों से उन्हें पूरे ज़ोर से लय में उनको बजा रहा था। किसी को कोई दर्द नही महसूस हो रहा था। किसी की पीठ ढोलक का काम कर रही थी।सभी भूत, प्रेत और पिशाच इत्यादि ख़ुश होकर इतना ऊँचा अपनी ही लय में गा रहे थे कि सुनने वाला डर से प्राण त्याग दे। और महादेव का बस चलता तो ख़ुशी के मारे अपनी प्रिय प्रजा की नज़र उतारते। सब कुछ इतना ऊँचा चल रहा था कि किसी की नज़र भवन के बाहर गयी ही नही। विवाह के बाद माँ ने आज खुल कर शिवपुरी का नज़ारा देखा था। क्यों कि माँ के सामने तो सभी बहुत शिष्ट बन जाते है। एक तरफ़ पूरे ज़ोरों-शोरों से भाँग का पेय बन रहा था।

 

स्कंद अपने मयूर के गले में दायी बाजू डाल कर बैठा था और उसकी चोंच के साथ अपना एक गाल लगाया हुआ था। और गणेश तो और भी व्यस्त था क्यों कि उसे मोदक से भरे हुए पात्र जो ख़ाली जो करने थे।

‘लेकिन यह क्या महादेव के गले में स्वर्ण का हार और यह राख में लिपटा हुआ नीली आँखों वाला युवक कौन है? जो महादेव जितना ही सुडौल है और महादेव की रुद्राक्ष की मालायें इसके गले में? आख़िर ये है कौन?’

“अभी ऐसी परिस्तिथि है नही कि महादेव अपने भक्तों के पास जाए क्यों कि महादेव अभी तक तो मुझ ही में बहुत व्यस्त थे।’’

माँ ने अपनी भौहें और आँखे थोड़ी सिकोड़ी कि देवी देख कर दंग रह गयी क्यों कि वो नीली नेत्रों वाला युवक कोई और नही, श्री हरि थे। आज महादेव की तरह राख में लिपटे देख कर, माँ श्री विष्णु को तुरंत नही पहचान पायी। शायद द्वारपाल माँ को यही बताना चाहता होगा। 

श्री विष्णु भी अपने प्रिय महादेव के साथ पूरा आनंद उठा रहे थे। श्री हरि भगवान के कर कमलों में  खड़ताल जैसे कोई चीज़ थी, जिस को बार बार बजा कर वह ‘महादेव, मेरे महादेव’ गा रहे थे। शायद श्री विष्णु भी महादेव के रंग में रंग गये थे।

‘अरे यह क्या, नारद भी!’ माँ बिल्कुल ही चौक गयी। नारद जी की वीणा को कोई गण बजा कर अपना ही संगीत दे रहा था। ‘ओह, तो नारद नारायण के साथ आए है।’

और किसी गण ने नारद जी को ज़बरन महादेव का पेय पिला दिया और उस को पीने के बाद नारद जी को भूख लग रही थी और उनकी नज़र गणेश के मोदक की तरफ़ थी। लेकिन गणेश से मोदक माँगना कुछ ऐसे था जैसे कि कोई उसके प्राण माँग रहा हो। उदंड गण थे कि नारद जी के साथ मस्ती करना छोड़ ही नही रहे थे। नारद जी श्री नारायण को सहायता के लिए पुकार रहे थे और श्री विष्णु, बेसुद्ध हो महादेव में मग्न थे।

सब की मस्ती नियंत्रण से बाहर हो रही थी कि महादेव की नज़र द्वार पर खड़ी माँ पर पड़ी। एक क्षण के लिए सब रुक गया।

‘बजाओ’ ‘महादेवी पधारी हैं।’ 

To be continued…        

           सर्व-मंगल-मांगल्ये शिवे सर्वार्थ-साधिके। 

           शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते ।।

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