“लेकिन मैं अभी भी इस रहस्य को जान नही पायी कि मुझ से ही क्यों दानवों का वध करवाया गया?” देवी ने फिर उत्सुकता से पूछा तो महादेव एक बहुत बड़ी मुस्कान लिए हँस पड़े और बोले, “देवी, आपको बताने के लिए ही रहस्य की बात शुरू की है, लेकिन क्या देवी कुछ शांत हुई?”

“नही, महादेव, अभी नही०००अभी तो यह जानने की उत्सुकता है कि मैं किस की इच्छा का लक्ष्य बनी?”

“केवल एक वरदान मेरे अवतरण का कारण नही हो सकता।”

“तो सुनिए देवी, केवल एक वरदान आपके अवतरण का कारण नही है, एक ही वरदान को सभी ने बार बार माँगा।” यह सुन कर देवी चौंक गयी।

महादेव ने बताया कि शुम्भ-निशुंभ के तप की सफलता और परिणाम देख कर सारी दानव जाति में अपने अस्तित्व को लेकर एक आशा की लहर दौड़ आयी। उसके बाद जितने भी महाबली थे जैसे चंड-मुंड, धूम्रलोचन, रक्तबीज, महिषासुर आदि ने अलग अलग अंतराल में केवल महादेव की ही साधना शुरू की। दानवों को यह पूर्ण विश्वास हो गया था कि केवल शिव की घोर साधना करने से उनका अभीष्ट सिद्ध हो पाएगा। क्यों कि उन्हें लगता था कि शिव बहुत ही भोले थे, कैसा भी वरदान वही दे सकते थे और केवल उन्हीं के पक्ष में थे। कठिन तप करो, महादेव के दिव्य दर्शन पाओ और साथ में ढेरों मन चाहे विचित्र वरदान प्राप्त करो। उनके मन में यह एक व्यापार करने जैसा था।

जब शुम्भ-निशुंभ त्रिलोकी को जीत रहे थे और आंतक मचा रहे थे। उसी समय चंड-मुंड महादेव का वैसा ही घोर तप कर रहे थे। उन्होंने भी अपने तप के बल पर महादेव के दर्शन प्राप्त किया और वरदान में माँगा कि उनकी मृत्यु भी एक स्त्री के द्वारा ही हो। जैसे ही वे लोग वरदान प्राप्ति करके वापिस लौटे, शुम्भ-निशुंभ ने उन्हें दैत्यों का राजा बना दिया और स्वयं मंत्री बन गये। इसके भी कई कारण थे। एक तो सभी योग्य महाबली एक एक करके सत्ता का अस्वादन कर सके। दूसरे जब भी कोई नया राजा नियुक्त होता था, तो उसकी नीतियाँ, सोच और निर्यदता का ढंग भी अलग होता था। इस से देवों पर आंतक बना रहता था। सबसे बड़ा कारण, ऐसा करने से दानवों में अटूट एकता का प्रचलन हो गया था। इस बार दैत्यों ने अपनी बुद्धि का प्रयोग बहुत कुशाग्रता से किया था। अब किसी भी नासमझी का कोई स्थान नही था। स्त्री के हाथों मृत्यु प्राप्त करने का वरदान, सभी दैत्यों ने योजना से माँगना शुरू किया था।

“वो कैसे, नाथ?”

“क्यों कि जो देवी सरस्वती है, सौम्य, शालीन और कलावती है। अकेले किसी का वध करना उनके कार्य क्षेत्र में है ही नही। देवी लक्ष्मी अति पतिव्रता और सम्पति दात्री है। और जैसे श्री विष्णु का आदेश होता है, वह वैसे ही अनुसरण करती है। श्री हरि थोड़ा अलग ढंग से कार्य करते है। उन्हें शस्त्र से नही, नीति से निर्णय लेना अच्छा लगता है।”

“तो, मैं कैसे?”

“जब दानवों ने तप करना शुरू किया तो अपनी सती देह का त्याग कर, महाराज हिमालय के यहाँ आप अवतरण ले चुकी थीं। किसी को भी यह भास नही था कि आप ही माँ जगम्बा हो। दानवों ने निश्चिंत होकर यह वरदान मुझ से इसलिए भी माँगा क्यों कि उस समय मैं पत्नी विहीन था। सती वियोग के बाद मेरी पुनः विवाह की इच्छा भी नही थी। दानवों को यह पूर्ण विश्वास था कि शिव की शक्ति देह का त्याग कर चुकी है तो किसी भी वीर स्त्री से क़तई उनका संहार हो नही सकता। इस प्रकार सबसे पहले उन्होंने त्रिदेवों की शक्तियों पर अपनी गहन बुद्धि लगायी। त्रिदेवों के हाथों उनका वध ना हो यह वरदान भी माँग लिया।”

महादेवी, महाबली दानवों की सोच पर बहुत ही हैरान हुई।

“उसके बाद दानवों ने देवों की पुत्रियों, पत्नियों आदि सभी स्त्रियों का बल पूर्वक अपहरण शुरू कर दिया। दानवों के महलों, बाग-बग़ीचे, रसोई घर, घाटों इत्यादि सब जगहों में केवल देव स्त्रियाँ ही दासियों की तरह काम करतीं थी। वे चाहते थे कि देव स्त्रियों में बल और आत्म विश्वास की इतनी कमी हो जाए कि दैत्यों की मृत्यु का वो सोच भी ना पाएँ। उन्होंने ख्याति, स्मृति, प्रभा, संध्या, ज्योति, दया, लीला, मेनका, उर्वशी, सुरभि, भावना, मेघा, निद्रा, बुद्धि, आरती, आभा, प्रसन्नता, अभिलाषा इत्यादि सभी अतिसुन्दर देव स्त्रियों को दासी बना दिया था। दानवियों को उन्होंने सेना का प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया, जो हर समय युद्ध के लिए तैयार रहतीं थी” यह सुन कर तो माँ के नेत्रों में आँसू आ गये।

महादेव ने बताया कि इन में से सबसे ज़्यादा धूर्त थे, रक्तबीज और महिषासुर। उन्होंने वरदान में माया विद्याएँ भी माँगी। इसी कारण से आगामी भविष्य के कारण महादेव ने महादेवी को युद्ध के लिए तांत्रिक विद्याओं में निपुण किया। तभी रक्तबीज के लिए माँ ने सहसा काली स्वरूप धारण किया और मायावी महिषासुर का भी वध अलग ढंग से किया।

“आपका वास हर स्त्री में है, देवी। अगर स्त्रीयाँ अपार कष्ट से आपको पुकार करेंगी तो आपको एक बार नही, बार बार रौद्र रूप धारण करना होगा”

“और दानवों को तो समझ ही नही आ रहा था कि उनका वध हो कैसे रहा था? वे समझ रहे थे कि शिव पत्नी विहीन थे। और जब उन्होंने रक्तबीज की मृत्यु और मेरे वक्ष स्थल पर आप के चरण के प्रहार के बारे में सुना तो वे लोग सन्न रह गये। वे सोच रहे थे कि भोले महादेव को मायावी काली देवी जैसी रौद्र स्त्री का पाणि ग्रहण हमारी मृत्यु हेतु करना पड़ा, शायद शिव भी हमारी मृत्यु निश्चित ही चाहते थे। जब कि दानवों की सरलता मुझे आज भी बहुत प्रिय है।” शिव ने अपने स्वभाव के अनुसार शरारत वाली मुस्कान में यह शब्द बोल दिए

सुन कर नारद जी के मुख पर भी हँसी आ गयी। लेकिन महादेवी की चेहरे की गम्भीरता रोष में बदल गयी।

“नाथ, क्या आपको मेरा रौद्र स्वरूप और मेरी वर्तमान स्तिथि एक हँसी-ठिठोली लगती है? भक्त आपके, वरदान आपके, दैत्य आपके, देव आपके, साधना आपकी और परिणाम में मेरे लिये क्षण क्षण का अपराध बोध! क्या मेरे लिए प्रेम की आपकी यही परिभाषा है? क्या जो कुछ हुआ….हम इस विषय पर फिर बात करेंगे।” नारद जी को देख कर माँ मौन हो गयी

“नारद जी, लेकिन अब से दैत्यों को कम और देवतायों को ज़्यादा, ऐसा कोई भेद-भाव नही रखा जाएगा। हर वर्ग को उसके कर्म और भाव के अनुसार ही अच्छा या बुरा फल मिलेगा।

अभी तो दैत्यों के जीवन की रक्षा करनी बहुत ही ज़रूरी है। अपनी वृत्तियों के कारण वो पथ भ्रष्ट होते ही रहेंगे लेकिन उनका सम्पूर्ण विनाश नही किया जा सकता।

कृपया लोकपाल दंडलोक की प्रकृति का दायित्व बहुत ही सजगता से करें।” ऐसा कह कर देवी वहाँ से चली गयी।

“महादेव, आज्ञा दीजिए मेरा आने का प्रयोजन पूर्ण हो गया है। देवी को मना लीजिए।” नारद जी मुस्कुराते हुए कह कर चल दिए

विषय की गम्भीरता समझते हुए, महादेव, माँ को मनाने के लिए माँ के कक्ष में गये। तो देवी उदासी में बहुत ही धीमे से बोली, “देखिए ना, महादेव, आपकी दृष्टि में भी मेरी छवि क्या से क्या हो गयी। अगर यही वध कोई दिव्य पुरूष करते तो उनकी वीरता के लिये एक सम्मान होता, लेकिन एक स्त्री के लिए इस से विकट परिस्तिथि कुछ नही होती, जब उसका परिचयप्रेम और सरलता का ना होकर, आंतक से जुड़ा हुआ हो।

और मैं अपने परिचय में केवल काली स्वरूप की छवि नही चाहती। क्या आप मुझ पर भी कृपा करेंगे?”

“वाराणने, ऐसा आप…” कहते हुए शिव रुक गए और कुछ क्षण के लिए माँ के शीश पर अपना आशीष हस्त रख दिया

“क्या आप मुझे इस से उभरने के लिए कुछ समय दे सकते है?” युद्ध परिस्तिथि की तरह आज भी माँ ने समय माँगा

“अवश्य” शिव ने भी धैर्य पूर्वक उत्तर दिया

कुछ दिन बाद-

महादेव को चिंतामणि गृह में आए लगभग १६ मन्वंतर हो चुए थे। जैसे किसी की गायन में रुचि होती है, किसी की विज्ञान में। ऐसे ही महादेव एकांत और गहन तप के बिना नही रह सकते। वो सदैव पूर्ण समाधि की अवस्था में ही स्थित रहते है। तप करना जैसे उनका श्वास लेना है। धर्म युद्ध के बाद वैसे भी कई ऐसी विघायें थीं जो लुप्त हो चुकी थी, जिन्हें जाग्रत करना ज़रूरी था, वर्तमान युग के विकास के लिए। इसलिए भी महादेव का अनिवार्य था तप के लिए जाना।

“ वासुकि, हम जल्दी ही कैलाश की ओर प्रस्थान करेंगे। बस थोड़ी सी व्यवस्था करनी होगी।“ महादेव बोले

To be continued…

          सर्व-मंगल-मांगल्ये शिवे सर्वार्थ-साधिके। 

           शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते ।।

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