(यह कविता दो औरतों के बीच एक काल्पनिक संवाद के रूप में रचित है।संवाद काल्पनिक ज़रूर है, पर दोनों की व्यथा असली है। ब्याहली की बोली मेरी आपबीती है।)

ये दोनों ही अनोखी राधा हैं – एक ग्रहस्त ब्याहली हैं और दूसरी राधा-सेवा NGO के लिए काम करती एक योगिन विधवा हैं।

ये दोनों औरतें एक दुसरे की हिम्मत बंधाती भी हैं और एक दुसरे में हिम्मत खोजती भी हैं।

क्या करें, हम औरतें होती ही ऐसी हैं।)

इनका नाम लक्ष्मी हैं, ये गोवर्धन के राधा कुंड को निर्मल रखती हैं
इनका नाम लक्ष्मी हैं, ये गोवर्धन के राधा कुंड को निर्मल रखती हैं
 

इंटरनैट पे देखा

तुझे बन्नो रानी। 

मैंने इंटरनैट पे देखा तुझे

तुझे बन्नो रानी।।

तूने मन मेरा पिघलाया है

तू तो बड़ी हिम्मत वाली।

सोचा बतियाऊं, तुझसे हिम्मत पाऊँ

ओ निराली बन्नो रानी।। 

ओ निराली बन्नो रानी।। 

इंटरनैट वाली गोरी

ना बोल मुझे बन्नो रानी। 

अरी ओ इंटरनैट वाली गोरी

मैं पतिहीना, ना बन्नो रानी।।

हिम्मत तुझे मैं क्या दूँगी

मैं खुद हरी-शरण में आयी।

आजा बात करले, करनी है तो

पर बुला ना बन्नो रानी।। 

बुला ना बन्नो रानी।।   

हरी हरी जपने वाली

होती श्याम की बन्नो रानी।

चल बन्नो ना बोलू तो ले

बोलुँ तुझे राधा रानी।। 

चमकते चेहरे वाली

होती हैं राधा रानी। 

आँखों में आस-धारी

होती हैं राधा रानी।।

सच-भरी मुस्कान वाली

होती हैं राधा रानी।

समर्पण भाव वाली

होती हैं राधा रानी।।

होती हैं राधा रानी।।

ये चमक नहीं पसीना है

झाड़ू लगाऊँ,मैं ना सियानी।  

आँखों ने क्या क्या देखा है

क्या बताऊँ, मैं ना राधा रानी।।

मुस्कान है चलते रहने की

लम्बी है जीवन की सवारी।

हरी सिवा, भाव किसी को ना दूँ

कलयुगी सब दुराचारी।।

कलयुगी सब दुराचारी।।

पसीना नहीं दिव्य दमक है

ओ राज़ छुपाने वाली।  

झाड़ू नहीं, जादुई छड़ी है

कान्हा को पाने वाली।। 

आँखों का देखा माया है

ऐसा गीता है बताती।  

आँख बंद कर फिर देख,

तू मुझसे सुंदर, प्यारी प्यारी।।

तू मुझसे सुंदर, प्यारी प्यारी।।

मैं बिंदी ना लगाऊं

मैं ना सुंदर, ना प्यारी।

मैं मांग-लुटी धूमावत हूं

ओ सिंदूरी लक्ष्मी रानी।।

कोई गहना नहीं पास मेरे

ओ डाइमंड पहनन वाली।।

मैं सफ़ेद खादी ओढू हूँ

ओ बनारसी ओढन वाली।।

ओ बनारसी ओढन वाली।।

तेरी बिंदी है तो सही

ये विभूति तिलक वाली। 

तेरी मांग है तो सजी

तू हरी की बन्नो रानी।।

तेरा नौलखा है तो यही

जिसमे तुलसी-मनके हज़ारी।

बनारसी चुभने लगती है

पता नहीं लक्ष्मी ने कैसे निभाई।

खादी नरम लगती है

खादी ही त्वचा को भाई।। 

सफ़ेदी सब रंगों से बनी

ओ भोली राधा रानी।

इस्लिये ही तो श्वेत ने

ज़री से ज़्यादा चमक है पाई।।

ज़री से ज़्यादा चमक है पाई।।

मैं लाली ना लगाऊं

तेरे होंठ और गालों वाली।

मैं चोटी ना गूंथुं हूँ

ओ पारलर जाने वाली।।

पैरन में धूल-माटी हैं

   ओ रचे हाथ पैरों वाली।

एक चप्पल रोज़ घीसू हूँ

ओ हील पहनन वाली।। 

ओ हील पहनन वाली।। 

गालों में गुलाबी है तो सही

हरि की प्रीत वाली।

बालों में पुष्प हैं तो सजी

हरि ने टहनी से गिराई। 

माटी नहीं, मेहँदी ही है

हरि की चरण-धुली बनके आयी।

देख हवाई झोंकों से

तेरे पैरों में उड़के आयी।।

चप्पल नहीं, सिद्ध पादुके हैं

जिसकी निरंतर चप-चप ने

तेरी भक्ति की अलख जगाई।।

तेरी भक्ति की अलख जगाई।।

बातुनी है, बहुत बातें बनाती है

पर तेरी ये बातें अच्छी सी लगती हैं।

तुझे सुनने को जी चाहता है

क्यूंकि ‘श्याम की बन्नो’ सुनके, मन नाच उठने लगता है।।   

तेरी ये मीठी बातें, प्यारी तो लगती हैं

पर मन में तेरे प्रति, शक भी पैदा करती हैं।।

सड़को पर रहती हूँ ना

जल्दी विश्वास नहीं कर पाती। 

किसी का भला वाच भी

मैं सच्चा नहीं मान पाती।।

ये तो कुछ नहीं, मैं लिख दूँ

कहानियों पे कहानी।

बस बता तुझे क्या सुन्ना है

भर दूं तेरे कानों की झोली।।

रच दूँ तेरे लिए रास के गीत

जिनपे थिरक-थिरक तू करियो सफाई। 

या प्रेम भरा लव लैटर लिख दूँ

जिसपे मिस्टर श्याम की हो ईमेल-आई.डी.।।

शंका छोड़, अपनी शरण में ले

मैं तुझे गुरु बनाने आई।

सब बताऊँ, पूछ क्या पूछना है

मैं खुद अपनी सच्चाई, तुझमे ढूंढन आई।।

मैं खुद अपनी सच्चाई, तुझमे ढूंढन आई।।    

कौन है तू?

कहाँ से आई?

मैं कौलेज डिग्री वाली

नौकरी छोड़ कर आई।। 

मैं दूर परदेस से

तेरे गोवर्धन पर्वत आई। 

पिछले कुछ सालों से

मैंने लड़ी एक लम्बी लड़ाई।

यूँ समझ एक लोभी राहू का

दमन करके हूँ आई।। 

जब तूने इतनी हिम्मत पाई

की राहू को निगल कर आई। 

तो फ़िर इतनी दूर से

मुझसे कौनसी हिम्मत मांगने आई?

तू मुझसे कौनसी हिम्मत मांगने आई?

इस लड़ाई ने ख़ोखला किया

मेरी भोली प्रीत का तना ऐसे। 

दीमक खा जाती हो एक

कोमल लकड़ी को जैसे।।

भोली प्रीत की खाँखर से

कोई भी अपना नहीं लगता।

परायो में जीने का

कोई मतलब नहीं मिलता।।

लड़ने की तो हिम्मत है

पर खाँखर को झेलने की नहीं। 

बड़ी हिम्मत चाहिए मुझे

ऐसा वैरागी जीवन जीने की।।

तेरा भोलापन भी छिना

फ़िर भी तू जीती जाती है।

किस हौसले से सुबह सुबह

तू उठ कर काम को जाती है।।

तू उठ कर काम को जाती है।।

एक सौभागन इस अभागन को

गुरु कैसे बनाने आई?

मेरी दशा पे क्या तुझे दया नहीं आई?

बोल, मेरी दशा पे क्या तुझे दया नहीं आई?

आयी, दया बहुत आयी

ओ प्यारी बन्नो रानी। 

तुझे अपनों ने ऐसे फ़ेंका

जैसे मूरत कोई परायी।।

देख के तुझे मुझको

अपनी स्थिती याद आयी।

हम दोनों की आप-बीती में  

देता न अंतर दिखाई।।

कौन अभागन अब कौन सौभागन

यहां तो बस हम दो वैरागन माई।

तेरे दर्द के सामने मेरा दर्द न देता दिखाई

तूने हिम्मत कैसे बँधायी?

तूने हिम्मत कैसे बँधायी?

सुना नहीं?

मैं अन-लकी हूँ।

फिर भी तू अपना लक

मेरे पास आज़माने आयी।।

मेरे पास आज़माने आयी।।

लक की कहूं तो बड़ी लकी है तू

पराये बंधनों से मुक्ति पायी।

जब हस्ती है तो खुली हवा सी हसी

कोई नाटक नहीं रचाई।।

तू खुलकर श्याम का भजन करे

मुझे छुप कर करना पड़ता है।

देख मैं कितने स्वाँग रचु

मेरा लक तेरे लक से हल्का है।। 

मेरा लक तेरे लक से हल्का है।।     

अरि चुप, ऐसे मत बोल,

मुझे तेरी व्यथा समझ में आयी।

मेरी शंका दूर हुई,

आ दूँ मैं तुझे दवाई।। 

जिस दुर्लभ राज़ को पाने

मैं तेरे धाम को आयी

वो अमृत बेला आयी।।

वो अमृत बेला आयी।।  

जब श्रृंगार-आवरण उतरे है

   तब सिर्फ़ यौवन ओझल होवे री।

जब साड़ी सफ़ेद होवे है

तब सिर्फ़ पहचान ओझल होवे री। 

पर जब अपने दुत्कार देवे

जब अपने पराये कर देवे

तब अस्तित्व ही ओझल होवे री।।

अस्तित्व ही ओझल होवे री।।

अस्तित्व ओझल होने पर

भावो की बाढ़ आती है।

सम्भल कर रहना है यहाँ

जब तक बाढ़ नहीं सूख जाती है।।

भावनाओं की बाढ़ जल्दी सुखाने को 

कुछ चीज़ें काम आती हैं।

नियम, नींद और भरा-पेट,

कसरत, आमदनी, भजन

ये सब बड़ी रंग लाती हैं।।

इस बाढ़ के सूखने पर ही

संयम और वैराग आता है।

वैराग से बड़े बस हरी

जो वैराग के बाद आते हैं।।

जब थोड़ा अच्छा लगने लगे 

जब मन थमने लगे।

जब विकार कम होने लगे  

जब बुरी आस और न निकले।।

तब मंत्र जाप करने की

सुनहरी बेला आती है।

ढूंढना कोई अच्छे साधु-साध्वी

वे हरी की चाबी देते हैं।।

कई बार ये साधु-साध्वी

अपने आप ही आ जाते हैं।

और आँखों को देख के 

स्वयं ही चाबी दे जाते हैं।।

 वो क्या कहते हैं, हाँ ‘सीक्रेट’!

ये चाबी ही वो ‘सीक्रेट’ है।

जिससे मुझे निरंतर हिम्मत मिलती रहती है

जिससे मुझे निरंतर एक शक्ति महसूस होती है।।

बस इसी एक चाबी से

हरी मैंने अपने अंदर पाए।

हरी बाहर वृन्दावन में नहीं

वो तो मेरे रोम रोम में समाये।।

हरी के दर्शन की आस में 

मैं रोज़ ख़ुशी से उठती हूँ।

झाड़ू की हर झाड़ पर

मैं हरी की चाबी जपती हूँ।।

आते हैं गोरी, वो सच में आते हैं

सपनो में ही नहीं, वे दिन में भी आते हैं।।

कभी एन.जी.ओ, तो कभी साध्वी रूप में

वो मेरी मदद सहज ही कर जाते हैं।।

हरी को पाया, लगे सब कुछ पाया

हरी जैसी कोई दौलत नहीं।

अच्छा हुआ अपनों ने ठुकराया

वर्ना मैं उनसे मिलती नहीं।।

वर्ना मैं उनसे मिलती नहीं।।

धन्य है रानी तू धन्य है

जो तूने हरी हैं पाए।

तुझे न मिले तो किसे मिले

वो पालनहार कह लाये।।    

हिम्मत तेरी मैं मान गई

अपना सब तेरे पे वार गई।

तूने ऐसी दीक्षा दी 

की मेरे अंदर की राधा जाग गयी।।  

मेरे अंदर की राधा जाग गयी।।

राधा किताबों में नहीं

फिर भी अपनी भक्ति से

वो हरी की प्यारी बन गई।  

तू भी किताबों में है नहीं

तो तू ही तो राधा रानी हुई।।

तो तू ही तो राधा रानी हुई।।

-वर्तिका   

(प.स. जबसे मैंने राधा सेवा एन.जी.ओ (इनका इंस्टाग्राम हैंडल) के बारे में पढ़ा, तबसे मुझे उनसे प्रेरणा मिली।

इसी प्रेरणा से मैंने उनको समर्पित ये काल्पनिक संवाद रचा।

आशा करती हूँ जैसे मुझे ये राधा रानियाँ सीख सीखा जाती हैं, वैसे ही इस संवाद को पढ़ने वाली औरतों को भी, अपने मुश्किल समय में संयम, समर्पण और श्रद्धा की प्रेरणा मिलेगी।)