वह अपने ही बुने जाल में फस गया, वही जाल जो उसने जाने-अनजाने में स्वयं बुना था । वह व्याकुलता से दूसरे से मदद की गुहार लगाता है कि शायद उसकी मदद को कोई उपस्थिति हो और उसे इस कैद से निकाल ले ,वह अपने समक्ष उपस्थित सक्षम साधनो की ओर आशान्वित नजरो से देखता है, याचना करता  है ,अपने बंधु-बांधवो को याद करता है  ।बार-बार मिन्नतें करता है, आखिरकार असहाय, लाचार दयनीय स्थिति में पीड़ा से कराहते हुए थककर मूर्छित हो जाता है। अर्धचेतना में वह सोचता है कि  सब ने उसकी मदद क्यों नहीं की? वह हमेशा सब के साथ-साथ रहा ,साथ में जीवन के उत्सव विलासो का भोग किया फिर भी उसकी मदद के लिए कोई क्यों नहीं आया?  यही सोचते सोचते वह क्रोधाग्नि में जल उठता है ,मन ही मन प्रण करता है कि  इस जाल से मुक्त हो जाऊ फिर मैं सबको सबक सिखाऊंगा और पाई पाई का हिसाब लूंगा। ऐसा सोचते ही उस पर पड़ी जाल की गांठे और सख्त हो जाती हैं,वह पीड़ा से चीख उठता है । बहुत यतन करने के  उपरांत भी स्वयं को मुक्त नहीं कर पाता और लगातार असफल होते प्रयासों को सफलता पूर्वक जारी करता है। वह अपने सामने फैले भांति-भाँति के साधनो की ओर निहारता है और वापस निराशा में डूब जाता है जबकि बाहर का दृश्य यह है कि समस्त सांसारिक साधन उसकी ओर ताक रहे हैं और आपस में बाते करते हैं, “कैसा मूढ मति है   कभी जाल की गांठे कसता है और फिर उसे हटाने के लिए हमें बुलाता है हममे से कोई मुक्त करने का प्रयास करे भी तो जाल का उभयनिष्ठ सिरा जो उसकी मुक्ति का केंद्र है उसे अपने हाथो से खींच लेता है ” अब बताओ इसकी मदद कैसे की जाय ? वह जाल की चपेट में प्रतिक्षण कसता जाता है, बाह्य जगत के समस्त साधन उसे मिथ्या जान पड़ते हैं उसे मृग मरीचिका की स्थिति जान पड़ती है और वह यह धीरे धीरे स्वीकार करने लगता है कि बाहर फैले दृष्टिगत सभी साधन मात्र एक छलावा है ऐसा सोचते-सोचते वह पुनः मूर्छित हो जाता है।अर्धचेतना में ही कहता की आखिर ऐसा क्यों..?वह अपनी सांसो के रुकने का इन्तजार करने लगता है उसका ध्यान केवल चल रही सांसो पर था वह उस क्षण में जीवित था ,कुछ समय पश्च्यात उसने क्या देखा की जाल की कसावट थोड़ी सी कम हुई यद्यपि जाल अभी भी उसके  ऊपर है उसे विश्वास नही आया की ये कैसे हुआ?  ….किसने किया यह?… कब किया? कौतुहल में वह अपने आस पास झाँकने लगा की कोई है जिसने यह सुकृत्य किया बाहर साधनो में हलचल वैसे ही थी और अब तो साधन उसके जाल के समीप भी आ पहुंचे थे। पर  साधनो की निष्ठुरता देख वह पथराई नजरो से जाल में पड़ी एक एक गांठो को ध्यान से देखने लगता है ,ज्यों ही उसने ऐसा किया जाल की एक गांठ खुल गई वह अचंभित हो उठा समझ गया की इस जाल का संबंध  कही न कही मेरे मानस से ही है उसने अपने चित्त को ध्यान पूर्वक जाल की दुसरो गांठो पे लगाया धीरे धीरे अन्य गांठे भी ढीली पड़ने लगी उसने  राहत की साँस ली और खुली गांठो से पूछा क्यों मेरे प्राणो की भक्षक बानी हुई हो?.. कौन हो तुम?…कहां से आयी हो?  उसमें से एक ने कहा मैं  तो तब आई जब आपने ईर्ष्या से अपने पडोसी को आहत किया था ,दूसरी ने कहा मेरा अस्तित्व तो आपके क्रोध से है, ऐसा करते-करते समस्त जाल की गांठे खुल गई सभी  अपने अस्तित्व और पोषण की कहानिया कहकर चली गई अंत में उसकी दृष्टि उसकी मुट्ठी में गई तो वह हतप्रभ रह गया उसने देखा की  जाल का मुख्य सिरा उसी के हाथो में था,और वह स्वयं ही था जो जाल को संचालित कर रहा था अब वह मुक्त था बाह्य जगत का दृश्य अब भी वही था सभी साधन और संसार उसकी देख  रहे थे।

ये मेरे निजी विचार है। 

पढ़ने के लिए धन्यवाद😊

जय श्री हरि🌼🌼🌹🌹💐🙏