पिछले कुछ दिनों से सरकारी मुलाज़िम केन्द्र सरकार की privatization policy यानि निजीकरण का विरोध कर रहे हैं, हड़तालें कर रहे हैं.

क्या निजीकरण वतन, अवाम के लिए ज़रूरी है या नहीं, आईए जानते हैं.

कुछ समय पहले मेरे एक अज़ीज़ ने अपनी आपबीती सुनाई.

उसने कहा कि वह उत्तर प्रदेश के एक रेलवे स्टेशन में टिकट बुकिंग के लिए लंबी कतार में खड़ा था लेकिन कतार आगे नहीं चल रही थी.
उत्सुकतावश वह कतार छोड़कर यह देखने गया कि बुकिंग क्लर्क इतना वक्त क्यों लगा रहा है.
कमरे का दरवाजा खोलकर वह कमरे में दाखिल हुआ तो उसने देखा कि बुकिंग क्लर्क विडियो गेम खेल रहा था!
जब बुकिंग क्लर्क ने मेरे अज़ीज़ को देखा तो उसने गाली गलौच करनी शुरू कर दी और टिकट काउंटर भी बंद कर दिया.

अर्थशास्त्र का शिक्षक होने के नाते मैं यह बताना चाहता हूँ कि हमारे मुल्क की ज़्यादातर public sector undertakings यानि सरकारी इकाइयां बेशुमार घाटे में चल रही हैं.

हमारे मुल्क की GDP यानि राष्ट्रीय आय का तकरीबन 9% सरकारी मुलाज़िमों की तनख्वाहों, भत्तों, पेंशनों आदि में खर्च होता है़ यानि हम हर वर्ष 11 ट्रिलियन रुपए सरकारी मुलाज़िमों के रख रखाव में खर्च करते हैं!

इतनी बड़ी रकम, बेशुमार घाटे को पूरा करने के लिए आम जन पर अतिरिक्त करों का बोझ डाला जाता है.
पेट्रोल, डीजल तथा अन्य चीज़ों की कीमतों में लगातार इज़ाफ़ा किया जाता है.

दुख इस बात का होता है जब लोग अपने छोटे मोटे कामों के लिए भी सरकारी दफ़्तरों में अपनी चप्पलें घिसते है.
कभी साहब नहीं आते तो कभी बाबू नहीं आते.

लाख रुपए या उससे भी ज़्यादा तनख़्वाह पाने वाला अधिकारी जायज़ काम के लिए भी भीख (रिश्वत) माँगता है.

यह एक करिश्मा ही है कि तीस-चालीस हज़ार रुपए की तनख़्वाह पाने वाला सरकारी कर्मचारी अपनी नौकरी के दौरान करोड़ों की जायदाद, ज़मीनों का मालिक बन जाता है

छोटे व्यापारियों और स्वरोज़गारों के पेट काटकर, गले पर अंगूठा रख कर सरकारी मुलाजिमों को आजीवन पेंशन दी जाती है जबकि 95% लोगों को कोई भी पेंशन, सामाजिक सुरक्षा नहीं है. इन्हें अपना बुढ़ापा दूसरों के मुहताज होकर काटना पड़ता है.

क्या यह 95% लोग भारतीय नागरिक नहीं हैं ?

कोरोना काल में लाॅकडाउन के दौरान हर चार लोगों में से एक बेरोज़गार हो गया, कारोबार बंद हो गए पर सरकारी मुलाज़िमों और नेताआों की तनख़्वाहें महीने से पहले ही मिल जाती हैं.
साल में दो बार महंगाई भत्ता भी मिलता है.

क्या यह सरासर अन्याय नहीं है ?

यह अफ़वाहें फैलाई जा रही हैं कि निजीकरण से महंगाई बढ़ने का खतरा है.
ऐसा कुछ भी नहीं है!
क्या Jio का रिचार्ज BSNL से महंगा है ?
Competition यानि प्रतिस्पर्धा यह सुनिश्चित करेगा कि उपभोक्ताआों को वाजिब दामों पर चीज़ें मुहैया होती रहें.

साहब, यह भाजपा या कांग्रेस की बात नहीं है, यह न्याय और व्यवस्था की बात है.

आज वतन के हालात देखते हुए मेरा यह विश्वास है कि निजीकरण के द्वारा ही हम अपने मुल्क में विकास की दर को बढ़ा सकते हैं, रोज़गार के अवसर पैदा कर सकते हैं, मुफ़लिसी दूर कर सकते हैं.

~ संजय गार्गीश ~