प्रिय मित्रों आशा है आप सभ कुशल होंगे। पिछले पोस्ट में मेने बताया था की युद्ध आरम्भ हो रहा है और दोनों सेनाएं कुरुक्षेत्र के मैदान में आमने सामने आ चुकी हैं। इस पोस्ट से अर्जुन का विषाद आरम्भ होता है।

संजय धृतराष्ट्र को बताते हैं- की दोनों ओर से युद्ध की हुंकार भरी जा रही है, जो बहुत भयानक है, उससे पृथ्वी आकाश का हृदय भी कांप उठा है।

 इस से तात्पर्य है कि हम जब भी किसी भी चीज की तैयारी करें। चाहें वह किसी से पहली बार मिलने जाना हो? या कोई साक्षात्कार हो, हमें पूरी तरह से उसकी तैयारी करनी चाहिए। अर्थात अपने क्षेत्र में पूरी तरह महारत हासिल करनी होगी। जिससे कि सामने वाले व्यक्ति पर आप का गहरा प्रभाव पड़े। तभी आपको सफलता मिलेगी।

अर्जुन युद्ध स्थल में खड़े हुए, अपने शत्रुओं दुर्योधन और बाकी सभी महा पराक्रमी वीरों को देखकर, भगवान से कहते हैं, कि मेरे रथ को दोनों सेनाओं के मध्य ले चलें, अर्जुन ने श्रीकृष्ण को इसलिए चुना था, वह जानता था कि साक्षात भगवान उसके साथ हैं। मतलब धर्म उसके साथ है। जिसके साथ भी धर्म होता है, वह कभी भी नहीं हार सकता।

आज के समय में, युद्ध कोई भी हो सकता है निजी या व्यवसाय संबंधी, दोनों पक्षों के बीच में जाकर ही हम उस युद्ध या स्थिति की अवस्था को जान सकते हैं।

अर्जुन भगवान को कहते हैं कि जब तक मैं युद्ध स्थल के बीच में जाकर भली-भांति देख ना लूँ , कि इस युद्ध में मुझे किस- किस से युद्ध करना है तब तक आप इस रथ को वहीं खड़ा रखें।

हमें भी अपनी समस्याओं के बीच में खड़े होकर ही निर्णय को लेना चाहिए।

संजय धृतराष्ट्र को बताते हैं, कि भगवान ने अर्जुन का रथ मध्य में खड़ा कर दिया। अर्जुन ने उन दोनों सेनाओं में स्थित अपने सभी रिश्तेदारों – ताऊ-चाचाओं, दादा परदादों, गुरूओं, मामाओं, भाइयों को,पुत्रों-पौत्रोंको,तथा मित्रों को, ससुरों को अन्य करीबी रिश्तेदारों को देखा इससे वे द्रवित हो उठे। (इसीलिए इसे धर्म युद्ध कहा गया है क्योंकि) अर्जुन के सामने के यह धर्म संकट बन कर खड़ा हो गया। अर्जुन सोचने लगे, ये सभी मेरे अपने ही हैं, परंतु अब ये शत्रु पक्ष में है। मुझे अब इन सब के साथ लड़ना होगा। यह देखकर वह अत्यंत दुख से भर जाते हैं। और यहीं से आरंभ होता है। विषाद योग। जिसके लिए भगवान को अर्जुन को मार्गदर्शन दिखाने के लिए गीता की रचना करनी पड़ी।

जो आज भी बिल्कुल वैसे ही सब का मार्ग दर्शन करती आ रही हैं जैसे पहले ।

युद्ध की बात करना आसान है। परंतु युद्ध करना अत्यंत कठिन, और यहां पर तो अर्जुन को अपनों से ही युद्ध करना पड़ रहा था, युद्ध मे बहुत सारी परिस्थितियां बदल जाती हैं। जैसे, अगर हमारी परीक्षा होती है, तो चाहे कितनी ही तैयारियों हमने पहले से ही की रख कर रखी हो, जब तक परीक्षा हो ना जाए। तब तक हमारा मन बेचैन ही रहता है।

इसी प्रकार अर्जुन के साथ हो रहा था। उनका गला सूखने लगा था, तथा मन पीड़ा से भर उठा था यह सोचकर ही, कि अपने ही सगे संबंधियों को मुझे मारना होगा, उनका गांडीव उनके हाथ से गिर गया। वह कहने लगे कि अपनों को मार कर तो मुझे क्या हासिल होगा? मैं सभी भोगों का त्याग करने को तैयार हूं। तीनों लोकों का राज्य अभी मुझे नहीं चाहिए।

जीवन का हर काम हम अपनों के लिए करते हैं, हर भागदौड़, हर आपाधापी हम अपनों के लिए करते हैं, परंतु यहां पर तो उन सभी को मारना पड़ रहा है। तो फिर सबको मार कर हम क्या करेंगे? कैसे राज्य भागेंगे? इन सब को मार कर मुझे कुछ नहीं चाहिए।

कई बार हमारे साथ भी ऐसी ही स्थिति उत्पन्न हो जाती है। जैसे आपस में बंटवारे की। तो उस समय हमें ठंडे दिमाग से सोचना चाहिए, कि एक दूसरे को दुखी कर कर करके यदि हमने कुछ हासिल भी कर लिया, तो क्या वह हमें सुखी बना सकेगा?

अर्जुन यहां कहना चाहते हैं, कि अगर परिवार नष्ट होता है, तो धर्म नष्ट होता है, धर्म के नष्ट होने पर, पूरे कुल परिवार में पाप आ जाता है। परिवार ही हमें अपनी जड़ों से आदर्शों से जोड़ कर रखता है। उसके खत्म होते ही समाज पतन की ओर जाने लगता है। अर्जुन बहुत विषाद में हैं। कि जिन पितामह की गोद में बचपन बीता, मैं उनका वध कैसे कर पाऊंगा? कौरव भी हैं तो उसी के भाई। अर्जुन बहुत ही दुविधा में हैं।

संजय धृतराष्ट्र को बताते हैं, इतना कहकर, अर्जुन रथ से उतरकर, रथ के पिछले हिस्से में जाकर बैठ जाते हैं।

यह था पहला अध्याय अर्जुन विषाद योग, इसमें अर्जुन के दुख में आने की, उनकी शंका में आने की बात बताई गई है। अगले अध्याय में भगवान अर्जुन की शंका का निवारण करेंगे।

धन्यवाद

 जय श्री कृष्ण

ॐ श्री कृष्णार्पणमस्तु🙏🙏