अपने गुनाहों की माफी मांगना ही प्रायश्चित है। प्रायश्चित के माध्यम से अपने अपराध को कम करने का प्रयास किया जाता है। सद, चित् , आचरण का व्यव्हार कर अपने पापों की क्षमा याचना करना प्रायश्चित है। मनुष्य का किसी बात पर आत्मग्लानि करते हुए माफी मांगना कम देखा गया है। अधिकांश दंड के डर से लोग अपने प्राप्त अपराध को छुपा लेते हैं। मनुष्य की शारीरिक या मानसिक दंड का निर्धारण अपराध की श्रेणी से निर्धारित होता है। जितना बड़ा अपराध उतना ही बड़ी सजा भी मिलती है। शारीरिक दंड का प्रावधान हमारे कानून में है। हम बड़े बुजुर्गों से सुनते आ रहे हैं कि अच्छे कर्म करने से सद्गति और बुरे कर्म करने से दुर्गति होती है। हमारे द्वारा किया गया प्रत्येक कार्य पाप और पुण्य की श्रेणी में रखा जाता है। समय रहते अगर हम अपनी गलती को स्वीकार नहीं करते तो मृत्यु पश्चात यमराज हमे उसका दंड जरुर देते है। बाल्यावस्था  में सुनी हुई या सब बाता जीवन हमें बुरी संगति पूरा व्यवहार करने में रोकता है। प्रायश्चित करके आत्म संतुष्टि होती है। किसी भी वस्तु को नष्ट करने के अधिकार हमें प्राप्त नहीं है, क्योंकि हम उसे नष्ट करने के बाद पुनः हुबहू नहीं बना सकते है।  इसी प्रकार किसी की भी भावनाओं को ठेस पहुंचा कर हमें खुश नहीं होना चाहिए। अतः अपराध की स्वीकार्यता आपके अपराध  को कम कर देती है अर्थात अनजाने या जानकर अपराध हो जाने पर उसे स्वीकार करना आवश्यक है।