तद्पश्चात घोषणा हुई कि चिंतामणि गृह के निवासी महादेव का अभिषेक करेंगे:-

सभी चिंतामणि गृह निवासियों ने भी महादेव और देवी माँ को अपने मंच पर आमंत्रित किया। महादेव को रक्त, माँस, काँटों और श्मशान विभूति से विभूषित देख कर सभी निवासियों के मन में अहं भाव आया कि महादेव का अभिषेक उनसे विशिष्ट कोई नही कर सकता। अतः महादेव को अच्छे से स्वच्छ करके फिर अभिषेक का आरम्भ करेंगे।

चिंतामणि गृह के सभी नगरवासीयों ने एक गोलाकार घेरे में माँ और महादेव को एक शिवलिंग जैसे संगमरमर शिला पर विराजमान करवाया। सबसे पहले उन्होंने महादेव के शीश पर लगे पंखों और काँटों वाले मुकुट को उतार के एक तरफ़ रखे कूड़ेदान में फ़ेक दिया। महादेव के अंगों पर लगी श्मशान विभूति को गंगाजल से अच्छे से धोया। फिर एक अत्यधिक सुगंधित जल जो कि केसर, गुलाब और चंदन से मिश्रित जल था उससे स्नान करवाया ताकि मदिरा की गंध को हटाया जाए। फिर दूध, दधि, मधु, घी, शक्कर, कुम कुम से भरे स्वर्ण पात्र लाए गए और महादेव के अंगों को मलने लगे। लेकिन महादेव में से मदिरा और रक्त की गंध जाने का नाम ही नही ले रही थी। फिर से अच्छे से गंगा स्नान करवाया गया। अभिषेक की सारी सामग्री महादेव की गंध दूर करने में ही समाप्त हो गयी। अच्छी बात यह थी कि प्रत्येक मंच पर देवी गंगा एक झरने के रूप में विद्यमान थीं। उनकी ओर देखने मात्र से ही वो महादेव के शीश पर गिर कर अभिषेक कर देतीं थी। चाहे महादेव का अभिषेक रक्त से किया गया था या दूध से, वो समानता से महादेव की जटायों में समाहित हो आनंद प्रदान कर रही थीं। अब नगरवासी महादेव का अभिषेक नही बल्कि महादेव को मल मल कर नहला रहे थे और इसी कारण थक कर चूर हो गए थे। और महादेव थे कि बारंबार एक ही रट लगाए हुए थे, “थोड़ा और ज़ोर लगायो, मुझे और कठोरता से रगड़ों, इस से यह दुर्गंध अपने आप चली जाएगी। मुझे सुगंधित करो।”

माँ जगतजननी, महादेव की लीला को समझ चुकी थी। देवी माँ के एक इशारे पर कालिंदी ने अपनी सखियों के साथ रुद्राष्टकम का मधुर गायन शुरू कर दिया-

नमामीशमीशान निर्वाण रूपं, विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदः स्वरूपम् ।

निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं, चिदाकाश माकाशवासं भजेऽहम् ॥

निराकार मोंकार मूलं तुरीयं, गिराज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् ।

करालं महाकाल कालं कृपालुं, गुणागार संसार पारं नतोऽहम् ॥

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं, मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरम् ।

स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारू गंगा, लसद्भाल बालेन्दु कण्ठे भुजंगा॥

चलत्कुण्डलं शुभ्र नेत्रं विशालं, प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।

मृगाधीश चर्माम्बरं मुण्डमालं, प्रिय शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥

प्रचण्डं प्रकष्टं प्रगल्भं परेशं, अखण्डं अजं भानु कोटि प्रकाशम् ।

त्रयशूल निर्मूलनं शूल पाणिं, भजेऽहं भवानीपतिं भाव गम्यम् ॥

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी, सदा सच्चिनान्द दाता पुरारी।

चिदानन्द सन्दोह मोहापहारी, प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥

न यावद् उमानाथ पादारविन्दं, भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।

न तावद् सुखं शांति सन्ताप नाशं, प्रसीद प्रभो सर्वं भूताधि वासं ॥

न जानामि योगं जपं नैव पूजा, न तोऽहम् सदा सर्वदा शम्भू तुभ्यम् ।

जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं, प्रभोपाहि आपन्नामामीश शम्भो ॥

रूद्राष्टकं इदं प्रोक्तं विप्रेण हर्षोतये

ये पठन्ति नरा भक्तयां तेषां शंभो प्रसीदति।।

महादेव एक दम से शांत हो गए। “यह अधिकार आप लोगों का नही था कि किसी की अर्पित की हुई पूजा को निम्न समझ कर उसे कूड़ेदान में फ़ेक दिया जाए। हर कोई यहाँ अपना भाव लेकर बैठा है। क्या मैं कोई प्रतिमा था, जिस को आप इतना निखार रहे थे। शिव जैसे है, उन्हें वैसे ही स्वीकार करना होगा।”

महादेव के वचनों ने व्रजपात का काम किया। अभी तो सब चरणों में गिर कर क्षमा माँग रहे थे। महादेव का क्रोध आने में और उन्हें प्रसन्न होने में एक क्षण भी नही लगता था, परन्तु बीच के उस आधे क्षण में विनाश निश्चित था या जीवन भर के लिए एक शिक्षा मिल जाती थी। उन्हें गहन उदासी में देख कर महादेव ने प्रेम से कहा, “अभिषेक आरम्भ करो। केवल गंगाजल से”

सभी के चेहरों पर मुस्कुराहट आ गयी और एक साथ ‘ॐ नमः शिवाय’ कह कर महादेव का अभिषेक करना शुरू किया। हर क्षण महादेव को १००८ कुम्भों से अभिषेक किया जा रहा था। ऐसा १०८ बार किया गया। और महादेव तृप्त हो गए।

“आपकी भूल के लिए मैंने आपको क्षमा कर दिया।” महादेव ने चिंतामणि गृह निवासियों को वरदान देते हुए कहा, “आप कुबेर जैसे हमेशा अन्न, धन और ऐश्वर्य-विलास से परिपूर्ण रहेंगे। श्री हरि के दिए हुए वरदान से आपको शिव भक्ति भी प्राप्त होगी। लेकिन यह भक्ति तब ही परिपूर्ण होगी जब आप समानता का भाव रखते हुए, अहं को त्याग कर मेरी भक्ति करेंगे।”

चिंतामणि गृह निवासियों की भावनाओं में क्षण भर के परिवर्तन ने उनकी आध्यात्मिक दिशा ही बदल दी।

ऐसा महादेव ही कर सकते थे कि गणों या पिशाचों आदि की तो स्वार्थ सिद्धि हेतु साधना हो सकती थी, लेकिन आज तक किसी ने कुछ सिद्धि प्राप्त करने के लिए मनुष्यों की साधना कभी नही की। अपितु अपने अहं को त्यागना ही मनुष्यों के लिए एक मात्र भक्ति का मार्ग है। 

इसके बाद महाराज हिमवान और देवी मैना ने अपने जमाता और पुत्री पार्वती को अपने मंच पर आमंत्रित किया। दानवों के वध से पहले देवी मैना को यह आभास ही नही था कि उनकी सुकोमल पुत्री सम्पूर्ण जगत की माँ जगदंबा थी और उनके इतने दिव्य स्वरूप है। जब माँ रणभूमि में दानवों का संहार कर रहीं थीं तब माता मैना तक भी समाचार पहुँच रहे थे, तो माता मैना थोड़ी विचलित थीं कि शिव कैसे पति थे, जो अपनी प्रिय पत्नी से यह विराट युद्ध करवा रहे थे। यह एक प्रेम विवाह था जो कि पार्वती के हठ और तप के कारण हुआ था। महादेव शुरू से ही परम वैरागी माने जाते थे, जिसकी वजह से माता मैना अपनी पुत्री के लिए चिंतित थी लेकिन पुत्री की प्रबल इच्छा को देखते हुए मौन थी। मायके में माँ पार्वती को युद्ध का कोई प्रशिक्षण भी नही दिया गया था। बल्कि उन्हें तो महादेव की सेवा के लिए केवल रसोई घर और अन्न क्षेत्र से परिचित करवाया गया था। लेकिन जब माता ने उनकी पुत्री के काली देवी स्वरूप के बारे में सुना तो वो विश्वास ही नही कर पायी कि यह सत्य था।

परंतु मंगल अभिषेक के अवसर पर चिंतामणि गृह में आने के बाद महादेव के लिए, माता मैना का सोचने का ढंग ही बिल्कुल बदल गया था। जब माता ने देखा कि महादेव हर अधिकार और निर्णय में देवी को प्रमुख रखते थे, उन्हीं पर अपनी हर सेवा के लिए निर्भर करते थे। और अपने समान ही उनको अलौकिक शक्तियों से सुसज्जित किया हुआ था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि महादेव देवी पार्वती के साथ अत्यधिक सम्मानपूर्वक बात करते थे। यह देख कर माता मैना की महादेव के प्रति सारी शंका दूर हो गयी। उनके हृदय में महादेव एक जमाता ना होकर, एक आराध्य बन चुके थे। महाराज हिमवान तो पहले से ही शिव भक्त थे, लेकिन माता मैना का यह सम्पूर्ण परिवर्तन अभी ही हुआ था। उसका एक यह कारण भी था कि माँ पार्वती ने कभी भी महादेव की कृपा का श्रय स्वयं को नही दिया और उसी कार्य को प्राथमिकता दी जो महादेव की इच्छा में होता था।

महादेव और महादेवी जैसे ही हिम मंच पर पधारे। तो इस बार भी अपनी दासियों और सखियों के साथ माता मैना पूजा की थाली लेकर अग्र खड़ी थी। और संयोग से इस बार भी महादेव  अपने पहले वाले (विवाह के समय) स्वरूप में थे क्यों की थोड़ी देर पहले ही भूतों और पिशाचों आदि ने उनका श्मशान विभूति से अभिषेक किया था। हालाँकि देवी जगदंबा महल में माता मैना के बारे में दुहाई देकर ही महादेव का विशेष ऋंगार करके आयी थी। लेकिन हुआ वही जिस का माँ जगत जननी को डर था और जो महादेव की इच्छा में था। महादेव का इस स्वरूप में फिर से माता मैना को दर्शन देना।

लेकिन आज माता भयभीत नही हुई बल्कि उनके नेत्रों से अविरल अश्रु धारा बह रही थी।

“महादेव, आज मैं आप से क्या याचना करूँ? आपके प्रति किए गए मानसिक अपराधों की क्षमा माँगू या आप से वरदान की याचना करूँ।” ऐसा कहते हुए माता ने महादेव को स्वागत टिका लगा कर, उनके चरणों अपना शीश रख दिया और माता के अश्रुयों की बूँदे महादेव के चरणों पर गिरने लगी।

महादेव ने माता को अपने दोनो करकमलों से उठाया और शीश पर आशीष देते हुए, मुस्कुराते हुए कहा, “मैं आपको दोनो दूँगा, क्षमा भी और वरदान भी। आपकी मानसिक स्तिथि एक माता की थी, जो कि अनुचित नही थी।”

और जब माता मैना ‘माँ भगवती’ कह कर देवी पार्वती के चरण छूने लगी तो माँ जगदंबा ने एक ही क्षण में माता को बीच में रोक दिया और कहा, “माँ, मैं अपना पुत्री कहलाने का अधिकार खोना नही चाहती। सम्पूर्ण ब्रह्मांड की जननी हुँ, लेकिन आपकी पुत्री ही रहूँगी।”

महाराज हिमवान और माता मैना ने सभी सहित महादेव का मंगल अभिषेक अपार भाव और प्रसन्नता से किया। इस अभिषेक में केवल हिमजल और कुछ दुर्लभ जड़ी-बूटियाँ ही थीं।

“आगामी भविष्य में, कैलाश के बाद मेरे दो मुख्य आवास हिमालय में स्थित होंगे। अमरनाथ और केदारनाथ। और देवी पार्वती के साथ मैं यहाँ सदैव निवास करूँगा।”

“अति आभार…महादेव की जय हो!!!” के नारों से हिम मंच गूँज उठा। इस प्रकार माता मैना की भावना में परिवर्तन ने भी उनकी दिशा महादेव की ओर मोड़ दी।

अभी सभी की प्रतीक्षा समाप्त होने को थी क्यों कि माँ ललिता महादेव का भव्य अभिषेक करने वाली थी।

To be continued…

           सर्व-मंगल-मांगल्ये शिवे सर्वार्थ-साधिके। 

           शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते ।।

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