कल शहर में घूमना हुआ. जन्माष्टमी के मौक़े पर मेले लगे देखे. देखकर ताज्जुब हुआ कि सिवा कुछ लोगों के, मेले मे लोगों का हुजूम नहीं है. पूछने पर बताया गया,”साहब, जमावड़ा आम आदमियों से होता है, पर मौजूदा वक़्त में आम आदमी के पास पैसा नहीं है.”

हिन्दुस्तान में, आज के दौर में, सिर्फ दो ही तरह के लोग असल में मौज कर रहे हैं – सरकारी मुलाज़िम और राजनीतिज्ञ.

मुझे नहीं मालूम कि ये क्या काम करते हैं, किस किस्म का काम करते हैं. पर हां, अर्थशास्त्र का शिक्षक होने के नाते इतना ज़रूर जानता हूँ कि इन्हें जो भारी भरकम तन्ख्वाहें, पेंशनें दी जाती हैं, वो सब आम आदमी का पेट काट कर, उनकी जेबों पर डाका डाल कर दी जाती हैं.

प्राइवेट क्षेत्र के मुलाज़िमों, स्वरोज़गारों, छोटे व्यापारियों से भारी भरकम प्रत्यश और अप्रत्यक्ष टैक्सों (Direct & Indirect taxes) की जबरन वसूली की जाती है ताकि सरकारी मुलाज़िम और सियासतदान बेफ़िक्र हो कर ज़िंदगी बसर कर सकें.

क्या यह नाइन्साफ़ी नहीं है!

साधारण व्यक्ति की आर्थिक स्थिति दिन ब दिन बदतर होती जा रही है.

मेरी यह रचना आम आदमी के दुख को व्यक्त करती है :

भूखों को जन्नत के सपने,
झूठे वायदे लाचारों को,
बदल बदल कर देख लिया,
इन बेग़ैरत सरकारों को.

रो रो कर हर दिन उगता है,
सुबक सुबक सोए हर रात,
चेहरे ज़र्द, मायूस दिल,
भूल गए त्यौहारों को.

हर-सू दुख, हर-सू तकरार,
चिंता रोटी की बरकरार,
लूट रहे सब मेहनतकश को,
कहां ढूँढें अवतारों को.

ना कोई ढाढस बँधाने वाला,
ना कोई राह दिखाने वाला,
पल पल कैसे बीत रहा है,
क्या बताएं यारों को.

बेग़ैरत : बेशर्म, ज़र्द : पीले, उदास, हर-सू : हर तरफ, तकरार : झगड़ा.

~ संजय गार्गीश ~