सादर नमस्कार।

आज के लेख में अष्टांग योग के नियमों को समझने का प्रयास करूंगा (जी, हाँ मैं यहाँ लिख कर जीवन के विविध पहलुओं व योग तथा आध्यात्म के विभिन्न अवयवों को समझने का प्रयत्न करता हूँ, फिर उन पर अमल करने की कोशिश करता हूँ)।

पहला नियम है- शौच – शरीर व मन की शुचिता

शुद्धिकरण करने को शौच कहते हैं। शरीर का शुद्धिकरण हम स्नान से व नियमित नित्यकर्म से करते हैं। सभी अंगों व इंद्रियों को स्वच्छ व स्वस्थ होना आवश्यक है ताकि वे हमारी साधना व अभ्यास में अधिक बाधक न बनें, यूँ तो वैसे भी शरीर को स्थिर करना कितना कठिन होता है!

इस संबंध में एक मजाकिया किंतु सार्थक कहानी, जो ओशो ने किसी मौके पर कही है, याद आती है-

ओशो : एक दिन सुबह-सुबह मुल्ला नसरुद्दीन आया। उसे लिख कर ही मैं कुछ कहने को था, लेकिन मैं कुछ कहूँ, उसके पहले ही उसने सवाल किया। उसने कहा, अब मेरी सहायता आपको करनी ही पड़ेगी। मैंने पूछा, क्या है समस्या? उसने कहा, बड़ी जटिल समस्या है। दिन में कोई बीस-बीस-पच्चीस बार, कभी और भी ज्यादा, स्नान करने की बड़ी तीव्र आकांक्षा पैदा होती है। मैं पागल हुआ जा रहा हूँ। बस यही धुन सवार रहती है। कुछ मेरी सहायता करो। तो मैंने पूछा कि स्नान तुमने किया कब से नहीं? उसने कहा, जहां कि मुझे याद आता है, मैं स्नान की झंझट में कभी पड़ा ही नहीं।

दूसरा नियम है- संतोष – संतुष्ट व प्रसन्नचित्त होना।

ईमानदारी पूर्वक परिश्रम करते हुए है, जो है, उसमें सुखी रहने को संतोष कहा जा सकता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति आगे उन्नत होने के लिये प्रयास ही न करे। संतुष्ट रहने से प्रसन्नता का उदय होता है।

तीसरा नियम है- तप – ध्येयानुसार शारीरिक व मानसिक संयम।

देखें तो हर किसी का जीवन एक तप है, एक साधना है। केवल पैर के बल खड़े होने वाला तप नहीं कर रहा, बाजार में दुकान पर रहने वाला व्यक्ति भी तप कर रहा है। दोनों ने अपनी श्रद्धा अलग-अलग स्थानों पर लगायी है। देश की रक्षा करने वाले सैनिकों ने अपनी श्रद्धा देश के प्रति अर्पित की है। और कोई व्यक्ति इससे अछूता नहीं है, सभी तप करते हैं।

बदलते मौसमों व बदलती मनोस्थितियों में डटकर ध्येय की प्राप्ति हेतु संघर्ष करना तप कहा जाता है। शरीर व मन का ध्येयानुसार संयम करना तप है।

चौथा नियम है- स्वाध्याय – बोध ग्रंथों पर मनन।

बोध ग्रंथों व साधनोपयोगी शास्त्रों पर चिन्तन व मनन करने को स्वाध्याय कहा जाता है। स्वाध्याय हमें साधना मार्ग की बारीकियों व बाधाओं से परिचित कराता है। हालांकि कई लोग स्वाध्याय की भी अति कर बैठते हैं और शब्दों के फेर में पड़कर साधना मार्ग से च्युत हो जाते हैं।

आरंभ में साधना और स्वाध्याय का अपना-अपना स्थान होता है। धीरे-धीरे जब साधना परिपक्व होती है तो साधना ही, स्वाध्याय का स्थान ग्रहण कर लेती है।

पांचवा नियम है- ईश्वर प्रणिधान – ईश्वर के प्रति समर्पित होना।

ईश्वर के प्रति समर्पण करना ईश्वर प्रणिधान कहलाता है। जिसे पाने के लिये साधक इतने यत्न कर रहा है उसी अगोचर के प्रति समर्पित हो जाना ईश्वर प्रणिधान है।

जिस प्रकार हम जानते हैं कि शरीर व मन परस्पर संबंधित होते हैं। उसी प्रकार ये सभी नियम भी एक-दूसरे को पूर्ण करते हैं। शौच से संतुष्टि का भाव स्वत: ही उदय होता है। संतुष्टि से जो प्रसन्नता व स्वास्थय प्राप्त होता है उससे तप करने के लिये बल मिलता है। तप माने शरीर व मन को संयमित करना, चाहे वह ध्यान के माध्यम से हो या अन्य यौगिक क्रियाओं से। प्राचीन ऋषियों के लिखे गये ग्रंथों हमारा पथ-प्रदर्शन करते हैं। एक गुरु के रूप में हम उनसे वार्ता करते हैं। स्वाध्याय हमें आत्मविश्वास प्रदान करता है, किंतु सच्चे अनुभवों के अभाव में, यह बहुत खोखला होता है। तब भी यह ही हमें मार्ग पर डटे रहने और अभ्यास करने में सहायता देता है। इस प्रकार ये सभी एक-दूसरे के पूरक होते हैं। यदि आप पहले एक को समझते व साधते हैं तो दूसरे को अपनाने में आसानी होती है।

आदरणीय सज्जनों को सप्रेम नमन। धन्यवाद।