पूर्ण और सार्थक ज्ञान प्राप्त करने के लिए कपट की नही अपितु श्रद्धा और अथक परिश्रम की आवश्यकता होती है। और देवी वामकेशी के इस कीलन का तोड़ तो केवल देवी के पास ही था। स्वयं महादेव भी इस कीलन को देवी की आज्ञा से ही भेदन कर सकते थे।

उसको यह समझने में एक क्षण भी नही लगा कि वन का कीलन कर दिया गया था। उसने ज़ोर ज़ोर से मायावी ध्वनियाँ निकालनी शुरू की। उसने एक साथ कई शिशुओं के रोने की आवाज़ें निकालनी शुरू कर दी। ताकि ऐसा लगे कि बाघासुर ने कई शिशुओं का अपहरण कर लिया था। लेकिन चिंतामणि गृह निवासी काफ़ी दिनों से सतर्क चल रहे थे और जानते थे कि यह सब उसका कपट था। सभी अपने अपने घरों के भीतर ही रहे।

अपनी ओर किसी भी तरह की प्रतिक्रिया ना देख देख कर क्रोध में बाघासुर ने वन को ही नष्ट करना शुरू कर दिया और अधिक से अधिक भयानक आवाज़ में अट्टहास करने लगा।

और नंदी ने चिंतामणि गृह के नगर भर में संदेश भिजवा दिया कि उस दिन कोई भी नगर निवासी घर से बाहर ना निकले। पूरे नगर में उस दिन बहुत भयानक सन्नाटा था। केवल बाघासुर के भयानक आवाज़ें सुनाई दे रहीं थीं।

माँ जगदंबा ने अपनी चिंता जताई कि बाघासुर इतना अशांत लग रहा था, शायद वह कोई बड़ा नुक़सान करने की फ़िराक़ में ना हो। तो देवी वामकेशी ने बताया कि कल रात्री को ही उसने मोक्ष वन का अपने रक्त से कीलन कर दिया था। जिसे बाघासुर भेदन नही कर पा रहा था और इसी वजह से क्रोधवश इतना चिंघाड़ रहा था।

महादेव को भी देवी वामकेशी की युद्ध की यह मूक घोषणा अत्यधिक अच्छा लगी। आज तक चिंतामणि गृह पर बाघासुर ने केवल अनगिनत आघात ही किए थे। उसने माँ जगदंबा और महादेव की सहनशीलता और करुणा को उनकी कमज़ोरी समझ लिया था। इसलिए आज वह स्वयं पर हुए आघात से मानसिक रूप से तैयार नही था।

“मैं, मानसरोवर में जल विहार करना चाहती हुँ। फिर पता नही, समय की कैसी इच्छा होगी? शायद अवसर ही प्राप्त ना हो” वामकेशी ने माँ और महादेव की समक्ष विनम्रता से प्रार्थना की

महादेव ने देवी वामकेशी के मन के भाव को समझते हुए कहा, “अति उत्तम! बल्कि देवी पार्वती और १५ नित्या देवियों को भी इस भ्रमण के लिए आपके साथ जाना चाहिए। किसी भी बड़ी चुनौती का सामना करने से पहले मन का शांत और एकाग्र होना नितांत आवश्यक होता है।”

“महादेव, अगर आप भी साथ में हो तो इस जल विहार का दिव्य आनंद कुछ और ही होगा।” माँ जगदंबा ने मुस्कुरा के प्रार्थना की

यह सुनते ही देवी वामकेशी के नेत्र प्रसन्नता से चमक उठे। महादेव एक बड़ी मुस्कान लिए हँस दिए और कहा, “लगता है देवी, आप मेरे पास कुछ भी संचित नही रहने देंगी।”

पहली बार ऐसा हो रहा था कि चिंतामणि गृह में रात्रि में युद्ध निश्चित किया गया था। सभी नगरनिवासी अपने घरों के भीतर बैठ कर अपने अपने ढंग से देवी वामकेशी की विजय की मंगल कामना और प्रार्थना कर रहे थे। बाघासुर जो कि एक भयानक शत्रु था, क्रोध से भयभीत करने वाली आवाज़ें निकाल कर चारों ओर आंतक का वातावरण बना रहा था। महादेव ने ऐसे कठिन स्थिति में भी मन को एकाग्र और शांत करने को ही प्रोत्साहन दिया।

आज बिना किसी निजी सेवक के महादेव, माँ पार्वती, देवी जगदंबा का निमित्त अवतार देवी वामकेशी और माँ जगतजननी के ही १५ नित्य स्वरूप एक बड़ी नौका में सवार हो, जल विहार कर रहे थे। बहुत मनोरम दृश्य था। ऐसा लग रहा था जैसे इंद्रधनुष के विभिन्न रंगों में पूर्णिमा का चंद्रमा स्थित था।

सभी मौन लेकिन मंद मंद मुस्कुरा रहे थे। किसी को भी बोलने की आवश्यकता महसूस नही हो रही थी क्यों कि महादेव की स्थिति में केवल आनंद की ही अनुभूति होती है।

महादेव ने धीरे से अपना डमरू बजाना शुरू कर दिया। डमरू में से सृजन और विध्वंस दोनो की तरंगें उत्पन्न हो रही थी। चारों ओर का वातावरण रहस्यमयी और घना हो गया। डमरू से उत्पन्न तरंगें जल, पर्वत और आस-पास के वृक्षों के साथ टकरा कर ध्वनि बन रहे थे और वही ध्वनि एक एक अक्षर का स्वरूप धारण करके देवी वामकेशी और १५ नित्या देवियों में समाहित हो रहे थे। इस एक एक अलौकिक अक्षर में कोटि कोटि ब्रह्मांडों के रहस्य छिपे हुए थे। ऐसा लग रहा था कि शायद महादेव इन रहस्यमयी मंत्रों को जाग्रत कर सभी में बाँट रहे थे और माँ पार्वती हाथ जोड़कर और नेत्रों को मूँद कर बैठी थीं। कुछ अक्षर आकाश में भी विलीन हो कर आकाश के रंग को बदल रहे थे।

प्रत्येक नित्या देवी और देवी वामकेशी का वर्ण उनमें समाहित अक्षरों की संरचना के अनुसार हो गया और उन में से वैसे ही प्रकाशमयी तरंगे उत्पन्न हो गयी। ऐसा लग रहा था कि यह जल विहार का विचार महादेव की इच्छा से ही उत्पन्न हुआ था।

थोड़ी ही देर में महादेव के नेत्र मद्य जैसे नशीले हो चुके थे। यहाँ तक कि इस दिव्य तरंगों के कारण बाघासुर का भयानक चिंघाड़ना बंद हो चुका था। महादेव का डमरू बजाना और उस दिव्य ध्वनि से विभिन्न दिव्य अक्षरों की उत्पत्ति अपने आप में प्रकृति की एक नयी संरचना थी। महादेव ने माँ की सभी शक्तियों में नयी ऊर्जा का समावेश किया। महादेव की प्रत्येक लीला में कुछ रहस्य ही होता था और महादेव अधिक्तर ऐसी लीला बिना कुछ कहे सहज अवस्था में ही कर देते थे।

“देवी वामकेशी, अभी जाने का समय निकट है। अपना अभीष्ट सिद्ध करके विजय को प्राप्त कीजिए।” महादेव ने अपनी इस अद्भुत लीला को विराम देते हुए कहा

नौका जब किनारे पर ठहर गयी तो देवी वामकेशी ने महादेव को प्रणाम करते हुए कहा, “हे महादेव, आशीर्वाद दीजिए मेरी आत्मा का वास सदैव आपके श्री चरणों में हो। मुझ में इतना सामर्थ्य नही कि मैं विलीन होने के बाद आपकी कृपा का स्मरण तक रख सकूँ परंतु मेरा ऐसा अटल विश्वास है कि आप मुझे सागर में खोई हुई बूँदों में से भी तलाश लेंगे।”

“मेरा आपको यह वचन है कि आप सदैव मेरे साथ ही निवास करेंगी, आपको ढूँढने की आवश्यकता नही पड़ेगी। अभी युद्ध के लिए कूच कीजिए।” महादेव ने देवी वामकेशी को आशीर्वाद देते हुए कहा

माँ जगदंबा, देवी वामकेशी और १५ नित्या देवीयां, जल विहार के बाद मोक्ष वन की तरफ़ प्रस्थान कर गयी।

To be continued…

सर्व-मंगल-मांगल्ये शिवे सर्वार्थ-साधिके।

शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते ।।

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