मैं कौन हूं? का जवाब अब तक न जाने कितने ही लोग दें चूकै है।ओर कितनी ही किताबों का लेखन भी  इस पर हो चुका है। लेकिन इस प्रश्न से जुड़ी सर्वाधिक महत्वपूर्ण कहानी जो रामकृष्ण परमहंस से जुड़ी है मैं कहना चाहूंगा।

एक बार एक धनवान व्यक्ति रामकृष्ण परमहंस से मिलने आया उसने पूछा क्या आपने भगवान को देखा है रामकृष्ण परमहंस बोले हां  देखा है, क्या आप मुझे भी भगवान से मिलवा सकते हैं,हां मिलवा सकता हूं। रामकृष्ण परमहंस ने बड़ी सहजता से जवाब दिया। बस आपको इतना करना है कि अपना पता बता दीजिए। व्यक्ति ने कहा इसमें क्या मुश्किल बात है, उसने अपना घर का पता बता दिया। रामकृष्ण परमहंस बोले गलत, तुम स्वयं का पता बताओ।

व्यापारी ने फिर अपने घर का पता बताया ओर  रामकृष्ण परमहंस ने फिर  नकार दिया दोनों में काफी देर तक कसमकस चली । फिर व्यापारी  को एहसास हुआ रामकृष्ण परमहंस क्या कहना चाहते हैं। उसने उनके पैर पकड़ लीऐ और माफी मांगी। परमहंस बोले यदि तुम स्वयं का पता ढूंढ पाऊं तो पता चलेगा कि भगवान पहले से ही वहां पर बैठा है।

हममें से कितने लोग स्वयं का वास्तविक पता जानते हैं। शायद कोई भी नहीं। शुन्य से सर्वस्व की यात्रा में सिद्धियां सहचर होती है लक्ष्य नहीं। यदि व्यक्ति सिद्धियो में उलझ जाएं तो  स्वयं को समझना भी असंभव हो जाता है, फिर ईश्वर को समझने का प्रश्न ही कहां रह गया। ओर स्वयं को तभी समझा जा सकता है जब उद्देश्य निजी ना होकर विश्वकल्याण का हो । जब उपासक स्वार्थ की सीमाओं से मुक्त होकर साधना के पथ पर अग्रसर होता है तभी वह स्थिति प्राप्त होती है जिसमें प्रवेश कर स्वयं कि और प्रयाण किया जा सके।