काली माँ बेसुध होकर क्रोध में आगे ही आगे बढ़ती जा रही थी। माँ ने अनुभव किया कि माँ के बाएँ चरण ने किसी वस्तु पर बहुत ज़ोर से प्रहार किया है।

जैसे ही माँ ने अपनी मदभरी आँखों से उस वस्तु की ओर देखा तो वह कोई वस्तु नही, महादेव थे…माँ के शिव, आशुतोष, प्राणनाथ…

जिस ओर माँ जा रही थी, तो शिव उस रास्ते में शव की तरह लेट गये थे, ताकि उनका दिव्य स्पर्श पाते ही माँ की स्मृति अपने पूर्व स्वरूप में पुनः लौट आये।

यह देखते ही माँ की रुधिर से सनी जिह्वा बाहर आ गयी और नेत्र विशाल हो गए और माँ ज़ोर से चिल्ला कर एक दम से पीछे की ओर हो गयी। माँ की स्मृति लौट चुकी थी। माँ ने क्रुदन करना शुरू कर दिया।

महादेव जैसे ही माँ को प्रेम से स्पर्श करने के लिए आगे बढ़े, माँ दोनो हाथों से क्षमा माँगती, बहुत रुदन करती हुई पीछे हट गयी। जिन महादेव की प्राप्ति के लिए माँ ने दूसरा जन्म लिया, करोड़ों वर्ष कठिन तप किया था, जिन की सेवा को माँ अपना सौभाग्य मानती हुई प्रसन्न रहती थीं, आज उन्हीं शिव को माँ के रौद्र स्वरूप को शांत करने के लिए, माँ के चरणों में आना पड़ा।

माँ को थोड़ा शांत करने के लिए, महादेव और माँ इस युद्ध की इस विकट परिस्तिथि में भी कुछ क्षण के लिए एकांत में मिले। वातावरण को हल्का करने के लिए महादेव तो मुस्कुरा रहे थे लेकिन माँ बिना ऋंगार के, बहुत ही गम्भीर, सदमे में, पथराई सूनी आँखों में और मौन में थी।

“महादेव”, चुप्पी तोड़ते हुए देवी के मुख से काँपता हुआ एक शब्द निकला और माँ ने बच्चों जैसे रोना शुरू कर दिया। अपार दुःख और अनियंत्रित आँसुयों की इस बाढ़ में माँ चाह कर भी बोल भी नही पा रही थी। रोती हुई माँ ने अपने आप को सम्भालने के लिए महादेव को कुछ क्षण रुकने के लिए हाथ से इशारा किया।

“आप समय लीजिए, वाराणने। मैं यहीं हूँ।”

“क्या मैं आप से एक प्रार्थना कर सकती हुँ?” माँ ने थोड़ा थम कर सिसकी लेते हुए कहा,“मैं अभी और युद्ध नही करना चाहती।”

“भद्रे, युद्ध ना करना आपका चयन नही है, इसलिए युद्ध तो आपको करना ही होगा और इस अधर्म का संहार भी आप ही को करना है।”

“आप मेरे आराध्य हो, मेरे इष्ट भी, मेरे गुरु भी और मेरे पति-परमेश्वर भी। मेरे पति को तो मैं विनती करके भी सहमत कर सकती हुँ, लेकिन मेरी विडम्बना यह है कि इष्ट और गुरु की आज्ञा की अवज्ञा कैसे करूँ? आपने मेरे पास कोई मार्ग ही नही छोड़ा चयन करने का” कहते हुए माँ फिर से फूट फूट कर रोने लगी

“आज मुझे आभास हुआ कि मुझे आप तंत्र की विद्यायें क्यों दे रहे थे? ना वो विद्यायें मेरी पास होती, ना मैं पूर्ण शक्ति बनती, ना युद्ध करने का दायित्व मुझ पर होता और ना ही आज मुझ से यह महापराध होता।”

“वाराणने, जो आपका था, उसको मैं अपने पास कैसे रख सकता था? इसलिए आपको आपकी विद्याओं की धरोहर वापिस की।”

“सर्वोत्तम पद केवल सुख, समृधि और वरदान देने के लिए नही होते। जितना बड़ा अधिकार, उससे भी बड़ा कर्तव्य होता है और उस से भी कही ज़्यादा त्याग करने के लिए तैयार रहना चाहिए।”

“समस्त ब्रह्मांड में आदर्श उदाहरण के साथ ही प्रस्तुत किया जाता है और आदर्श उसी को माना जाता है जिस ने अपने पूर्ण सुख और भावनायों का बलिदान दिया होता है। प्रकृति का यही नियम है। और आप चाहे या ना चाहे जिस कार्य के लिए आप का अवतरण हुआ है, वो तो समय समय पर आपको पूर्ण करना होगा। आप आदिशक्ति हो…आप शिवशक्ति हो और शिव की शक्ति का कार्य तो संहार करना है। आप सम्पूर्ण हो, देवी।” महादेव ने माँ की दृष्टि से दृष्टि मिलाते हुए कहा।

“लेकिन महादेव, जो भी हुआ उस से मैं अभी उभरने में असमर्थ हुँ। एक अपराध बोध में हुँ, सब कुछ मेरी बुद्धि से परे है।”

“क्या आप मुझे एक वचन दे सकते है?”

“मैं हुँ ना, आपके साथ, समय आने पर सब ठीक हो जाएगा। लेकिन अभी कर्तव्य का निर्वाह करना अनिवार्य है। जो भी आप कहेंगी, वचन देता हूँ उसे पूर्ण किया जाएगा।”

“आप मेरी मनोस्तिथि जानते है। एक तरफ़ निजी जीवन है और दूसरी तरफ़ धर्म के प्रति कर्तव्य है।”

“आप से मेरी प्रार्थना है कि जब तक मैं दानवों का संहार कर रही हुँ और कैसी भी अनियंत्रित परिस्तिथि हो जाए, कृपया आप मेरे समक्ष ना आए। क्यों कि अगर शिव समक्ष होंगे तो आपकी शक्ति संहार नही कर पाएगी। मैं क्षीण हो जायूँगी। आपके समक्ष होने से मुझ में प्रेमभाव उत्पन्न होगा। मैं अपने प्रियतम के सामने एक संहारणी का भयानक रूप धारण नही कर पायूँगी। इस लिए देवता गण आपसे चाहे जितनी भी सहायता की गुहार लगाये, लेकिन आप मेरी इस प्रार्थना को ही प्राथमिकता दी जियेगा।”

“तथास्तु। हमारी भोली देवी भी अब योजना के साथ प्रार्थना करने लग गयीं है।’’ महादेव ने माँ के मुखारविंद पर मुस्कुराहट लाने के ढंग से वचन दिया।

चेहरे पर मुस्कुराहट की एक महीन रेखा लिए माँ की आँखे फिर से अश्रुओं में डूब गयी।

आज महादेव एक पति की नही बल्कि एक अनुशासित और वैरागी गुरु की भूमिका निभा रहे थे। जो सारी मनोस्तिथि जानते हुए भी माँ से धर्म युद्ध करवा रहे थे।

सभी देवतायों ने और श्री हरि ने महादेव को उनकी सहायता करने के लिए धन्यावाद किया और महादेव अपने धाम लौट गये।

देवतायों को कर्तव्य पालन और धर्म का अनुसरण करने का आदेश देकर श्री हरि भी अपने परमधाम लौट गये।

इस बार माँ ने सभी देवतायों की पत्नियों में भी अपनी शक्ति का संचार किया और उन्हें भी इस धर्म युद्ध में शामिल किया। इस प्रकार ब्रह्मांड की प्रत्येक दिव्य नारी माँ का ही स्वरूप हो गयी।

माँ ने सभी महादानवों चंड-मुंड और महिषासुर का संहार किया। अपनी सहचरियों और शक्तियों की सहायता से दैत्य साम्राज्य का विनाश कर दिया।

सभी देवतायों ने भावपूर्ण माँ की अत्यधिक सुंदर स्तुति की।

सर्वभूता यदा देवि भुक्ति मुक्ति प्रदायिनी ।
त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवंतु परमोक्तयः ।।६।।

sarvabhūtāyadādevibhuktimuktipradāyinī।
tvaṁstutāstutayekāvābhavaṁtuparamoktayaḥ।।

सर्वस्य बुद्धिरूपेण जनस्य हृदि संस्थिते ।
स्वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोस्तुते ।।७।

sarvasyabuddhirūpeṇajanasyahr̥disaṁsthite।
svargāpavargadedevinārāyaṇinamostute।।

कलाकाष्ठादिरूपेण परिणाम प्रदायिनि ।
विश्वस्योपरतौ शक्ते नारायणि नमोस्तुते ।।८।।

kalākāṣṭhādirūpeṇapariṇāmapradāyini।
viśvasyoparatauśaktenārāyaṇinamostute।।

सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके ।
शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते ।।९।।

sarvamaṁgalamāṁgalyeśivesarvārthasādhike।
śaraṇyetryaṁbakegaurīnārāyaṇinamostute।।

सृष्टिस्थिति विनाशानां शक्तिभूते सनातनि ।
गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोस्तुते ।।१०।।

sr̥ṣṭisthitivināśānāṁśaktibhūtesanātani।
guṇāśrayeguṇamayenārāyaṇinamostute।।

शरणागतदीनार्त परित्राण परायणे ।
सर्वस्यार्ति हरे देवि नारायणि नमोस्तुते ।।११।।

śaraṇāgatadīnārtaparitrāṇaparāyaṇe।
sarvasyārti hare devinārāyaṇinamostute।।

हंसयुक्त विमानस्थे ब्रह्माणी रूप धारिणी ।
कौशांभः क्षरिके देवि नारायणि नमोस्तुते ।।१२।।

haṁsayuktavimānasthebrahmāṇīrūpadhāriṇī।
kauśāṁbhaḥkṣarikedevinārāyaṇinamostute।।

मयूर कुक्कुटवृते महाशक्ति धरेनघे।
कौमारी रूप संस्थाने नारायणि नमोस्तुते ।।

mayūrakukkuṭavr̥temahāśaktidharenaghe।
kaumārīrūpasaṁsthānenārāyaṇinamostute।।

शंख चक्र गदा शांर्ग गृहीत परमायुधे।
प्रसीद वैष्णवीरूपे नारायणि नमोस्तुते ।।१४।।

śaṁkha cakra gadāśāṁrgagr̥hītaparamāyudhe।
prasīdavaiṣṇavīrūpenārāyaṇinamostute।।

गृहीतोग्रमहाचक्रे दंष्ट्रोद्धृतवसुंधरे ।
वराहरूपिणी शिवे नारायणि नमोस्तुते ।।१५।।

gr̥hītogramahācakredaṁṣṭroddhr̥tavasuṁdhare।
varāharūpiṇīśivenārāyaṇinamostute।।

नृसिंहरूपेणोग्नेण हन्तुं  दैत्यान् कृतोद्यमे ।
त्रैलोक्यत्राण सहिते नारायणि नमोस्तुते ।।१६।।

nr̥siṁharūpeṇogneṇahantuṁ  daityānkr̥todyame।
trailokyatrāṇasahitenārāyaṇinamostute।।

किरीटिनि महावज्रे सहस्त्रनयनो्वले ।
वृत्रप्राणहरे चैन्द्रि नारायणि नमोस्तुते ।।१७।।

kirīṭinimahāvajresahastranayanovale।
vr̥traprāṇaharecaindrinārāyaṇinamostute।।

शिवदूती स्वरूपेण हत दैत्य महाबले ।
घोररूपे महारावे नारायणि नमोस्तुते ।।१८।।

śivadūtīsvarūpeṇahatadaityamahābale।
ghorarūpemahārāvenārāyaṇinamostute।।

दंष्ट्रकराल वदने शिरोमाला विभूषणे ।
चामुण्डे मुण्डमथने नारायणि नमोस्तुते ।।१९।।

daṁṣṭrakarālavadaneśiromālāvibhūṣaṇe।
cāmuṇḍemuṇḍamathanenārāyaṇinamostute।।

लक्ष्मि लज्जे महाविद्ये श्रद्धे पुष्टिस्वधे ध्रुवे ।
महारात्रि महामाये नारायणि नमोस्तुते ।।२०।।

lakṣmilajjemahāvidyeśraddhepuṣṭisvadhedhruve।
mahārātrimahāmāyenārāyaṇinamostute।।

मेधे सरस्वति वरे भूति बाभ्रवि तामसि ।
नियते त्वं प्रसीदेशे नारायणि नमोस्तुते ।।२१।।

medhesarasvativarebhūtibābhravitāmasi।
niyatetvaṁprasīdeśenārāyaṇinamostute।।

धर्म की पुनः स्थापना हो गयी।

स्वर्ग लोक और ब्रह्मांड के अन्य छोटे-बड़े सारे लोक जो कि संख्या में लगभग ७००० लाख थे, दैत्यों से रहित हो पुनः जीवंत हो गए।

बाक़ी बचे हुए दैत्य अपने प्राण बचा कर पाताल के दंड लोक में भाग गए। यह नरक से भी कहीं ज़्यादा भयानक लोक था जहाँ दैत्यराज अपने अपराधियों को भिन्न भिन्न प्रकार की यातनायें देता था। आज दैत्यों के पास अपने प्राण बचाने के लिए बस यही एक स्थान बचा था…भाग्य की विडम्बना!!!

इधर देवतायों ने भय से अपने स्वार्थ लिप्त इस अपराध को भी देवी के सामने स्वीकार किया और क्षमा माँगी।

परंतु देवी ने एक बार भी अपने मुख से यह नही कहा कि यह अपराध नही था। बल्कि देवी ने अपने गम्भीर स्वरूप में एक माँ की तरह सभी को इच्छित वरदान दिया और कई मनवांतरो के लिए अंतरध्यान हो गयी। कहीं ना कहीं सभी देवता भी इस  लीला से व्यतिथ थे और शर्मसार भी।

देवी पार्वती अपने निजी जीवन में वापिस आ चुकी थीं। लेकिन वो जीवन सामान्य नही था। महादेव उनके पास थे और सारी परिस्तिथि को समझ रहे थे लेकिन माँ क्षण क्षण एक गहरे अपराध के बोध में समय व्यतीत कर रही थीं।

माँ ने इतने बड़े धर्म युद्ध में विजय प्राप्त कर नवीन समाज की स्थापना की थी और समस्त नारी जाति को पुरुष प्रधान इस साम्राज्य में विशेष स्थान प्रदान किया था। परंतु माँ को यह सब निरर्थक लग रहा था। यहाँ तक कि चिंतामणि ग्रह जो देवी और महादेव का लीला स्थल है, वहाँ पर भी माँ ने विजय उत्सव मनाने से इंकार कर दिया।

To be continued……

  सर्व-मंगल-मांगल्ये शिवे सर्वार्थ-साधिके
  शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते ।।

I have taken the beautiful stuti of Devi Maa from here.

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