माँ ने अपना अतुलनीय ऋंगार और सौंदर्य अपनी विशिष्ट प्रिय सखियों में प्रसन्नता से बाँट दिया और माँ स्वयं ऋंगार रहित हो गयी।

माँ ने सभी को प्रसन्नता से आशीर्वाद देते हुए कहा ,“आज से आप सभी मेरा ही स्वरूप हो। मेरे प्रिय आसन श्री विद्या के यंत्र में मेरे सबसे निकट आप ही लोग त्रिकोण स्वरूप में विराजमान होगीं और मैं त्रिकोण के मध्य लाल बिंदु स्वरूप में विराजमान रहूँगी। आप 15 तिथियों के स्वरूप में विद्यमान रहेंगी तो मैं पूर्णिमा और अमावस्या के स्वरूप में विद्यमान रहूँगी। आप के भिन्न-२ 15 स्वरूप होंगे लेकिन आप सबका सम्मिलन मैं षोडशी स्वरूप में विद्यमान रहूँगी। इसी भाव में श्री भगवान की भी 16 कलायें होंगी। 16 ऋंगार होंगे, षोडशोपचार का अत्यधिक महत्व होगा। आपकी मान्यता के साथ ही मेरी साधना सफल होगी। इसलिए आज आप सभी को मैंने एक एक विशिष्ट बीज मंत्र से अलंकृत किया है। आपके प्रत्येक बीज मंत्र में मेरा ही वास है और आप सभी के बीज मंत्रों का स्वरूप मिलकर मेरे स्वरूप का आवाहन होगा। और आज से आप सभी के आराध्य भी महादेव ही होंगे।” 

इस प्रकार सभी नित्या देवी माँ के स्वरूप और दिव्य आशीर्वाद को प्राप्त हुई। उनकी निःस्वार्थ सेवा और प्रेम का इतना दिव्य पुरस्कार, उन्होंने कभी नही सोचा था। देखते ही देखते सभी सखियाँ माँ के समान ही दिव्य और कांतिमान हो गयी। माँ और उनमें केवल वस्त्रों के विभिन्न रंगों का ही अंतर शेष था। सभी ने माँ के चरण पकड़ लिए और प्रत्येक देवी को माँ ने बहुत प्रसन्नता पूर्वक आलिंगन किया। माँ ने उनमें और स्वयं में किंचित भी भेद नही रखा, यहाँ तक कि महादेव का भाव भी सभी सखियों में बाँट दिया।

इतना असीमित भाव केवल ईश्वर के हृदय का ही हो सकता है, जिस में तेरा-मेरा ना होकर ‘हमारा’ शब्द प्रधान होता है।

महादेव के महाभिषेक की तैयारी बहुत शीघ्रता से चल रही थी। समारोह का आयोजन चिंतामणि गृह की मानसरोवर झील पर किया गया था। झील में ही अतिथियों, गणों आदि और नगर निवासियों की सुविधा के अनुसार विविध प्रकार के मंच बन रहे थे। जैसे महादेव और माँ का मंच झील के मध्य में था। थे तो यह सभी मंच, लेकिन झील में बिना डगमगाए यह कश्ती का काम भी कर रहे थे और मंच तैर कर अपना स्थान भी बदल रहे थे। झील के एक कोने में एक बहुत ही विशाल मंच तैयार किया गया था। जहाँ भिन्न प्रकार के असंख्य वाद्य रखे गये थे। प्रत्येक मंच पर वहाँ पर बैठने वाले लोगों की पसंद के अनुसार ही खान-पान की व्यवस्था की गयी थी।

उदाहरण के लिए श्री हरि और देवी लक्ष्मी के मंच पर सुगंधित चंदन की लकड़ी से नक्काशी की गयी थी और पुखराज और माणिक्य के रत्नों को बड़े ही अद्भुत ढंग से जड़ित किया गया था। इस मंच को कमल का आकार दिया गया था। उस मंच की सज्जा केवल सफ़ेद और पीले रंग के फूलों से की जानी थी। उनके आसन के लिए गुलाबी रंग के बहुत बड़े कमलों की रचना की गयी थी, जिन में बहुत ही सुकोमल रेशम का बिछौना रखा जाना था।  

इसी प्रकार श्री ब्रह्मा और देवी सरस्वती के लिए हंसाकार का स्फटिक का मंच निर्मित किया गया था। जिसमें गहरे हरे रंग के अमूल्य पन्नों और हीरों की सज्जा की गयी थी। इस मंच को केवल सफ़ेद मोती और कलियों से ही सजाया जाना था। श्री ब्रह्मा और देवी सरस्वती का आसन भी कमल के पुष्पों का ही था लेकिन वह कमल श्वेत रंग के थे, जिन की सुगंध से पूरी मानसरोवर झील महक उठी थी।

इसी प्रकार गणों, पिशाचों और योगिनियों आदि के मंच में श्मशान और अघोरी तत्व विद्यमान था। इस मंच की सज्जा विभिन्न प्रकार की हड्डियों, कंकालों और पीपल के पत्तों से की गयी थी। इनके खान-पान के लिए विशेष प्रकार के माँस और मद्य का आयोजन भी किया जाना था।

चिंतामणि गृह के निवासियों के लिए एक विशाल नौका आकार के मंच का निर्माण किया गया था। इसे विभिन्न रंगों के साथ-२, पुष्पों और शीशे की टुकड़ियों से सजाया गया था। और केसर के इत्र की सुगंध से सारा मंच महक रहा था। इनके खान-पान के लिए विभिन्न प्रकार की व्यंजन और मिठाई परोसी जानी थी।

माँ के मायके परिवार से महाराज हिमालय और देवी मैना आ रहे थे। उनके लिए हिम खंड जैसा ही मंच तैयार किया गया और विभिन्न प्रकार के झरनों के साथ सजाया गया। उनके खान-पान हेतु केवल गर्म पेय पदार्थों का ही आयोजन था।

गणेश और कार्तिक का मंच मयूर आकार का था। गणेश का आसन मोदक के आकार का संगमरमर का बना था और कार्तिक का आसन मयूर के पंखों से निर्मित था। इस मंच की गणेश की प्रिय दूभ(नरम घास), पान के पत्तों और सितारों जैसी किसी चमकीली वस्तु से सज्जा की गयी थी। खान-पान का सर्वाधिक आयोजन इसी मंच पर किया गया था वह भी गणेश के लिए। नंदी, वासुकि और महादेव के अन्य अभिन्न आयुद्ध भी इसी मंच पर विराजमान थे।

करुणामय महादेव और राज राजेश्वरी देवी माँ का मंच श्री विद्या चक्र की आकृति का बना हुआ था। इस में सभी नित्या देवियों के पन्ने जड़ित कमलाकार आसन उनके स्थान के अनुसार ही लगाये गए थे। बिंदु स्थान के मध्य में एक स्फटिक की सिंदूरी लाल रंग की शिला रखी गयी थी जिस पर महादेव और माँ जगम्बा को विराजमान होना था। इस मंच की सज्जा केवल अद्भुत माणिक्य और पन्ने से की गयी थी। अद्भुत चमक वाला गहरे लाल रंग का माणिक्य विशेषकर सूर्य लोक से मँगवाया गया था। रत्नों के साथ साथ सुगंधित लाल गुलाब, चम्पा और रजनीगंधा के पुष्पों से भी इस दिव्य मंच को सजाया गया था। एक भिन्न प्रकार की धातू से बना गगनचुंबी ॐ मंच के पृष्ठ भाग पर लगाया गया था। ॐ का रंग हर क्षण बदल रहा था। इस वजह से भी यह मंच विशेष लग रहा था।

केवल महादेव शांति पूर्वक, मुस्कुराते हुए और एकांकी भाव से अपना समय व्यतीत कर रहे थे। बाक़ी सब उत्साह और दायित्व के कारण कार्य को संपूर्ण करने में जुटे हुए थे। हर कार्य के लिए एक सुशिक्षित अध्यक्ष नियुक्त किया गया था जो कि आगे सब काम अपने निपुण दल में बाँट रहा था। इस समारोह की सारी देख रेख माँ स्वयं कर रही थी और सभी अध्यक्षों की  मुख्य अध्यक्ष वहीं थीं। माँ मुख्य अध्यक्ष थीं, तभी यह समारोह इतना भव्य हो रहा था, जो कि किसी की कल्पना से भी बाहर था। और अगर महादेव इस समारोह को आयोजन कर रहे होते तो हो सकता था कि अभिषेक मानसरोवर के किनारे पर ही होता और प्रसाद में केवल भांग और गंगा जल बाँटा जाता। महादेव ने आज तक केवल एक ही समारोह का आयोजन किया था-अपने विवाह का वो भी महादेवी की प्रार्थना करने पर। महादेव और उनकी बारात को देख कर माता मैना मूर्छित हो गयी थी और यह दृश्य देख कर देवी माँ ने तभी निर्णय ले लिया था जो भी छोटा-बड़ा समारोह होगा, उस की अध्यक्षता माँ स्वयं करेंगी।

एक निपुण अध्यक्ष की चुनौती ही यही होती है कि ठोस योजना बनाते हुए और प्रेम से सभी की सेवा का महत्व समझ कर सभी को साथ लेकर चलना चाहिए। तभी वह कार्य एक छोटी सभा ना होकर एक भव्य समारोह का स्वरूप धारण करता है। और देवी माँ की अध्यक्षता तो अतुलनीय थी।

जैसे जैसे महाभिषेकम का दिन नज़दीक आ रहा था, सबकी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। बहुत सदियों के बाद चिंतामणि ग्रह पर कोई समारोह का आयोजन किया जा रहा था। वहाँ की प्रकृति ने अपना रूप पहले जैसे कर लिया था। रंग बिरंगे पर्वतों के बीच कल कल करती बहती नदियाँ हर 2 कोस पर अपना रंग बदलती थी। तालाबों में चिंतामणि गृह की कन्यायों के स्नान करते करते ही जल का रंग बदल जाता था। जैसे वो नीले रंग के जल में स्नान कर रही थीं, जब तक वे पानी में से डुबकी लगा कर बाहर आती तो जल दूध के जैसे श्वेत हो चुका होता था या फिर सिंदूर के जैसे लाल आदि रंगो से नहा कर मन पुलकित हो जाता था।

पक्षी भी चहचाते, अठखेली करते उड़ते थे। फलों से लदे वृक्ष भी झुके हुए थे। यहाँ के लोग बिना वृक्षों को नुक़सान पहुँचाये, उनसे केवल प्रार्थना करते थे और वृक्ष अपने फलों को अर्पित करके उनकी इच्छा की पूर्ति करते थे। इस प्रकृति में जड़ चेतन में बहुत ही कम भेद भाव था। सभी ओर प्रेम और उमंग का ही वातावरण था।

महाभिषेक से एक रात पहले, मानसरोवर झील के इर्द-गिर्द सारे मंडपों को अंतिम साज सज्जा का स्पर्श दे दिया गया था। कमल और दिव्य दीपक छोड़ने की वजह से मानसरोवर झील का स्वरूप निखर कर सामने आ गया था। सभी दलों को उनके दायित्व समझा कर आख़िरी सभा को विराम दे दिया गया। सभी दल हर हर महादेव के जयकारों को लगाते हुए अपने निवास स्थान पर लौट चुके थे।

माँ अपना सारा कार्य काज सम्पन्न कर कक्ष में प्रविष्ट हुई तो महादेव अभी जाग रहे थे। थोड़ी हैरानी के साथ लेकिन मुस्कुरा कर माँ ने शिव की ओर देखा।

“देवी बहुत ही थक गयी है। बहुत सारे दिनों से देख रहा हूँ कि आपने बिल्कुल भी विश्राम नही किया।”

To be continued…

           सर्व-मंगल-मांगल्ये शिवे सर्वार्थ-साधिके। 

           शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते ।।

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