पिछली कड़ी में महामंत्री के साथ हुई अनहोनी से इतर। आयिए अब तनिक राजमहल की ओर चलतें हैं…

महाराज रविनाथ, आसपास की विषम परिस्थितियों से पूर्णतया अनभिज्ञ हैं। उनकी चेतना तो अपने ही विषाद में रमी हुई है। वे स्वयं को निरंतर आश्वस्थ करने का प्रयास कर रहें है। होता हैं ना, मनुष्य के ईश्वर अनुराग की अग्नि परीक्षा ऐसे ही कठिन क्षणों में होती है, हम सबसे पहले अपने आराध्य पर या स्वयं पर प्रशंचिंह अंकित करते हैं और फिर स्वयं ही संशय के तानेबाने में उलझ जातें है। मन की गति और उसका संसार ही भिन्न है। एकमात्र हमारी दृढ़ आस्था ही ऐसी विकट स्तिथी में रक्षक होती है।

इस मामले में रविनाथ पक्के थे, वे रास्ता खोज रहे थे और केंद्र में जा कर समझना चाह रहे थे। कि माँ का संकेत समझने में कहा त्रुटि हुई? क्योंकि देवी के शब्द विफल नहीं हो सकते, और इस विषय में वह अपनी प्रिय रानी सुमति से भी कुछ ना कहते। पर यह भी है, पुरुष अपनी भार्या से  क्या ही छुपा लेगा? यह सम्बंध वह है जो संवाद से परे है ।  

रानी अपनी कोशिशों में लगी है, और ऐसा प्रतीत होता है वे कोशिशें रंग लायी। कैसे मिश्रित भाव लिए सुमति अपने साथ एक स्त्री को लेकर आ रहीं हैं।

यह उनकी सहचरी केशवती है।

रानी राजकक्ष में जातीं हैं। महाराज अगर आज्ञा हो, तो मैं केशवती को आपके समक्ष लाना चाहती थी, वह जब अपने नैहर से वापस लौट रही थी तो कुछ अद्भुत घटना घटी।

रविनाथ इशारे से सहमति देते हैं।

सहचरी प्रणाम करके अपनी आप बीती कहना प्रारम्भ करती है। महाराज, आपसे पहले ही अभय की याचना करतीं हूँ, कृपया मेरी भारी त्रुटि को क्षमा कीजिएगा।

कल अपने भ्राता के साथ नगर आगमन करते समय हमारा दल रास्ते में एक विशाल जलाशय के समीप जलपान के लिए रुका, फिर निकट स्तिथ एक वट वृक्ष की छांव में विश्रांत हो कर हम बैठ गए। जाने कहाँ से वायु में स्वप्न मिश्रित मिठास बहने लगी और हम निद्रा देवी की गोद में स्थान्तरित हो गए।

यह तो कहना कठिन है की कितने समय तक मैं सोती रही, परंतु जब जागृति आयी, तो एक घने कोहरे के अनंतर कुछ भी नज़र ना आता, बस सब ओर एक आशंकित अंधकार।

तभी क्या देखतीं हूँ!

वह वट वृक्ष एक विशाल दरवाज़े में परिवर्तित हो गया, और उसमें से दो चित्ताकर्षक हाथ, नमस्कार की मुद्रा में बाहर आतें है और एक अंजलि में, मेरे सामने एक रक्त वर्ण की अत्यंत रमणीय मणि प्रस्तुत होती है।

तभी आकाश से घोषणा होती है।

“केशवती, हम तुम्हें एक अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य सौंप रहें है, यह दुर्लभ मणि महारानी को देना, और उनसें कहना, पूर्णमासी की रात्रि को चूर्ण करके, स्वर्ण पात्र में हवियान्न के साथ ग्रहण करें। यह ध्यान रखना इस कार्य की पूर्णता पर पूरे राज्य का भविष्य टिका हुआ है”

 कुछ ही क्षणों में कोहरा छटनें पर दल के सभी सदस्य होश में आ गए।

मेरा प्रयास था की आपके पास बिना विलम्ब पहूँचु। पर सूर्यदेव अपनी दिनचर्या पूर्ण करके अस्तांचल को प्रस्थान कर गए थे। विवशतापूर्वक हमने निर्णय किया कि अगले गाँव के किसी विश्रामगृह में रुक कर सुबह जल्दी निकलेंगे।

राजा: केशवती, ज़रा संक्षेप में कहेंगी? पूरा दिन तो है नहीं हमारे पास।

जी राजन, माफ़ कीजिए, संक्षेप में कहूँ तो, बड़ी ही अनहोनी हो गयी, रक्त मणि और मेरे भाई, दोनो का विलोप हो गया है।

राजा: क्या मतलब?

मुझे आशंका है कि विश्रामगृह में जो ऊँची पगड़ी वाला, श्वेत रंग का व्यक्ति था। हो ना हो वही इसका सूत्रधार है। रात्रि भोजन पश्चात, सहज ही हमारा वार्तालाप होने लगा, बड़ा ही वोनोदी व्यक्तित्व का धनी था वह। कुछ समय बाद उसने पूछा, क्या हम चार अनोखे भाइयों की कहानी सुनना चाहेंगे। उसकी वो अद्भुत कहानी सुनते हुए हम निद्रा देवी के कृपाधीन हो गए।

प्रभात की थपकी से उठी तो पाया कि रात्रि लुप्त होते होते, मेरे भाई, मणि और वह व्यक्ति, तीनों को रहस्यपूर्ण रूप से अपने संसार में ले गयी। हे प्रभु! मैं उधर रूकी ही क्यूँ ?

राजा: चलो जो हुआ उसका तो कुछ किया नहीं जा सकता, पर हमें भी वह कथा सुनाओ, शायद अंजला माँ इसमें ही कोई रास्ता दिखाए।

केशवती: जी महाराज।

चार अनोखे भाई

एक समय की बात है, पाटलिपुत्र राज्य में एक बढ़ई अपने चार गुणी पुत्रों; चंद्र, रथ, ध्रुव और आर्य के साथ रहता था। उसकी कुशलता और बुद्धिमत्ता के चर्चे राज दरबार तक थे, राजा अपनी विशेष वस्तुएँ, उससे ही बनवाते।

एक दिन उसने पुत्रों को बुलाया और कहा: तुम अब युवा हो गए हो और मैं नहीं चाहता की तुम यहाँ बंध के रहो। अब तुम्हारे जाने का समय आ गया है। संसार में अपनी रुचि और जिज्ञासानुरूप कुछ सीख कर आओ। मैं तुम्हारी यहीं प्रतीक्षा करूँगा।

चारों एक स्वर में: परंतु पिताजी, हमें संसार का कुछ भी ज्ञान नहीं।

पिता: इसलिए तुम्हारा जाना महत्वपूर्ण है, अब समय व्यर्थ मत करो। कल प्रातः ही सब चले जाना।

अगले दिन तड़के, चारों भाई घर से निकल कर एक चौराहे से अपने अलग रास्ते जाने से पहले निर्णय करते है कि चार वर्ष बाद इसी स्थान पर मिलेंगे।

पहला भाई चंद्र, लगातार चलते ही जाता है और एक देवदार के घने जंगल में पहुँचता है। वहाँ मौजूद एकमात्र पगडंडी पर चलते हुए उसे लम्बा अंतराल बीत जाता है, पर हैरानी की बात है की रास्ता ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। जंगल से बाहर जाने की बात तो छोड़िए ऐसा लग रहा था की यह एक अनसुलझी पहेली है।

फिर वह रास्ते पर ध्यान देना शुरू करता है, एक बात उसे साफ़ होती है, कि एक पत्थर है जो एक घड़ी* चलने के बाद हर मरतबा नज़र आता है। इसका अर्थ हैं कि वह चक्राकार घूम रहा है।

इसी के साथ दिन भी ढलने लगा और उसकी बेचैनी बढ़ने लगी। थक हार कर उसी पत्थर पर बैठ कर स्वयं से कहता है।

यह कहाँ फँस गया मैं ? अगर इधर से बाहर ना निकला, तो इस भयानक वन में ही रात गुज़ारनी पड़ेगी और इसके साथ ही घना अंधकार सर्वत्र छा जाता है। गम्भीर गर्जना के साथ एक आवाज़ आती है, नवयुवक तुम मेरे वन में कैसे चले आए? अब आ गए हो तो बढ़िया है, मेरे भोजन का प्रबंध हो गया, काफ़ी अरसा हो गया मनुष्य भक्षण किए हुए।

बिचारे चंद्र की स्तिथी बद से बदतर हो गयी।

राक्षस: बालक तुम्हारी जिव्हा को क्या साँप सूंघ गया? मृत्यु से भय नहीं लगता?

आश्चर्यजनक रूप से स्वयं पर नियंत्रण पाकर चंद्र कहता है: 

देव मैं तो अज्ञानी हूँ, देश, काल, परिस्तिथि का कुछ भी ज्ञान नहीं है। अगर रत्ती भर भी ज्ञान होता की यह क्षेत्र आपके अधीन है, तो कभी बिना अनुमति प्रवेश करने का दुस्साहस ना करता। अब तो मुझसे यह अपराध अनजाने ही हो गया।

मुझे तो आप कोई महान देवता लगते हैं, अगर आप मुझे अपनी क्षुधा पूर्ति का साधन बनाना चाहते है तो यह मेरे लिए सम्मान की बात होगी। पर आपसे एक निवेदन है, कि मृत्यु से पहले आपका परिचय जानने की अभिलाषा है, और साथ ही साथ अगर आप मुझे अपनी सेवा में रख लें तो आपका बहुत आभारी रहूँगा। मेरा भक्षण तो आप जब चाहें कर सकतें हैं।

राक्षस: युवक, मुझे पाशांड नाम से जाना जाता है; यह वन 500 साल पहले वरुण देव ने मुझे भेंट स्वरूप दिया था, और बालक, तुम्हारी सेवा की बात मुझे अच्छी लगी। चलो यह बताओ तुममें ऐसा क्या गुण है, जो मेरे काम आ सकता है?

चंद्र: पाशांड देव, सत्य कहूँ तो, मैं घर से विद्यार्जन के लिए निकला था और यहाँ आपके पुरातन वन में आ गया, आप जो भी मुझे सिखाएँगे वह में प्राणोपन से सीखूँगा और करूँगा।

कुछ देर विचार करने बाद पाशांड कहता है।

ठीक है फिर, मैं तुम्हें द्यूत विद्या में पारंगत करूँगा और तुम हर रोज़ मेरे लिए भोजन की व्यवस्था करोगे। कुछ ही दिनो में चंद्र, द्यूत में निपुण हो गया, उसकी कुशलता देख कर पाशांड ने और भी कई उपकलाओं का उसे ज्ञान दिया। अब लगभग चार वर्ष पूर्ण होने को आ रहे थे और वह संकोचवश पाशांड के पास आज्ञा लेने के लिए पहुँचा।

पाशांड: पुत्र, मैं तुम्हारी ईमानदारी और लगन से अत्यंत ही प्रसन्न हूँ । तुम अपने जीवन में वापस लौट सकते हो, मेरी शुभकामनायें हमेशा साथ रहेंगी। यह मेरा चूड़ा रखो, जब कभी ज़रूरत पड़े, इसे अग्नि में डाल देना। मैं तुम्हारी सहायता के लिए आ जाऊँगा।

आशा करता हूँ, कहानी का यह अंश आपके मन को भाया होगा। अब थोड़ा विचार मंथन कर लेते हैं।

इस कड़ी को पढ़ने के बाद निम्न प्रश्न सहज ही मन को तरंगित करतें हैं :

  1. क्या केशवती उस मणि को सुरक्षित रखने के लिए कुछ और कर सकती थी? या जो हुआ वह टाला नहीं जा सकता था?
  2. चंद्र में ऐसे कौन से गुण थे, जिसने उसे पाशांड का इतना प्रिय बना दिया?

अभी के लिए इतना ही, कहानी के अगले अंश में आपसे भेंट होती है…

*  घड़ी: काल मापने का प्राचीन मान जो चौबीस मिनट का होता है।

 
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