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बुद्ध ने संसार को रौशन किया ,क्या यशोधरा की अंधियारी कोठरी जगमग कर पाए?
क्या कहूँ? क्या लिखूं? न शब्द हैं ,न ही योग्यता।
'शरण रखो हे नाथ ! , कातर मन ,चकोर नयन ढूंढे चंदा सी छवि...
'किताब और रहस्यमयी संसार'
अब क्या करूँ, उम्र मेरे हाथ मे थोड़ी है जो उसे भी अपने साथ...
'रात के अंधेरे में पर्दा डाल के आते हो,मेरे बदन का पर्दा उठाते हो,पर्दा...
'सिर से सीने में कभी ,पेट से पाँव में कभी ,एक जगह हो तो...
" इतना ही लो थाली में, व्यर्थ न जाये नाली में"
'इस विशाल प्रेम सागर को मैं अकेले कैसे पोषित करूँगी...??
"कॉन्क्रीट ,पत्थर के ये भेड़िये मुझे खा जाने को आतुर थे"
'मेरी प्रकृति, " प्रकृति प्रेमी" है ,संकीर्णता में मेरा दम घुटता है'
बेवा हुई गलियां चीखती है, और सन्नाटा अट्टहास करता है