कभी कभी प्रश्नो के जंगल में मन भटकने लगता है,
न जाने कितने ही प्रश्न उग जाते है,
एक के बाद एक लगातार, जंगली घास की तरह,
मन के धरातल पर फैलते ही जाते है,
जेहन की रूह तक को हिला देते है,
और उत्तर के नाम पर कुछ मिलता भी है,
तो मिलता है……. फ़िर एक प्रश्न,
अर्थहीन और अधूरा सा,
मैं तो पार नही कर पाती हूँ,
क्या आपको इसके बारे में कुछ समझ आता हैं?
अगर ये संसार इतना ही स्वप्निल है तो इसका धरातल इतना कठोर क्यूँ?
सब जगह अगर मै ही हूं तो हर में इतना अन्तर कयूं?
क्यों झूठ सच और सच झूठ लगता है?
क्यों हर बार दिखावा ही मिटता है?
कुलबुलाते कचोटते से ये प्रश्न मेरी व्याकुलता को चरम पर ले जाते है,
और मैं एक बार फिर..
इसके ताने बाने में उलझकर रह जाती हूं,
हर बार की तरह शून्य से ही टकरा जाती हूं,
हाँ हर बार……………
क्या आपको भी मेरी तरह का अनुभव होता है तो कंमेंट में बताना जरूर
– खुशबू
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