*लेखक मन की दुविधा
जब लिखना मुश्किल हो जाए
और शब्द उड़न छू हो जाएं
लेखक मन ही मन घबराए
क्या करे, कुछ समझ ना आए।
ऐसे में आड़ी तिरछी लकीरें बना कर
मन के साथ तुम भी खेलो
रंगों के साथ कुछ मस्ती कर लो
फिर देखो रचना का जादू,
समय पंख लगा उड़ जाए
‘कला’ कैसी कलाबाजियां दिखलाए।*
आड़ी तिरछी लकीरें
कागज का नया पन्ना
हाथ में वही कलम
लिखने को आतुर
पर इस बार शब्द नहीं
नहीं कोई अक्षर, अपितु
आड़ी तिरछी लकीरें
मन भी जैसे उड़ चला
गुनगुनाता पीछे पीछे।
बिंदु से शुरू होकर
कुछ गोलाकार
कुछ आयताकार
कुछ अंडाकार
उंगलियां घूमती रहीं
कलम के साथ-साथ
आंखें सब कुछ निहारती
मन ही मन मुस्कातीं
कुछ नई मंज़िलें
और उनके काफ़िले
दूर क्षितिज पर
उभरते आ रहे थे।
आखिर पड़ाव आ गया
रंगों ने भी कमाल
दिखला ही दिया।
इठलाती बलखाती
सागर की लहरों पर इतराती
पानी से मुंह उठा मुझे लुभाती
फिर पानी में गुम हो जाती।
मेरा मन भी अठखेलियां करने लगा
सागर में गोते खाने लगा
मछली सा गोते खाता
इन आड़ी तिरछी लकीरों ने
कमाल का मंज़र पेश किया
चले थे कोई कविता लिखने
रच डाला एक समन्दर नया ।
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