जाने किस मौन में यूँ बहा करती हूँ,
भरे बाजार अकेली मैं रहा करती हूँ।
राग, द्वेष की सिलवटें
रूह के कमीज से उतरती हैं,
मैं किसी साक्षी-सी स्तब्ध
इन्हें सुलझते देखा करती हूँ।
जाने किस मौन में यूँ बहा करती हूँ,
भरे बाजार अकेली मैं रहा करती हूँ।
कभी कोई जो आ जाता है
मन के खंडहरों की दहलीज़ लांघकर,
तो मटमैली दीवारों की शैवालों-सी
उनकी रूह पर उग आती हूँ क्षण-भर।
पर खंडहर किसको भाते हैं भला एक उम्र-भर !
कौन इनके मलबों के नीचे
किसी गहरी कहानी के होने का
आभास कर पाता है!
राग बन भला इसकी नीरवता
कब तक फूट सकती है किसी के अंदर!
वीरानो की खूबसूरती हर किसी के मन में नहीं उतरती।
एक बार को सारी बंदिशों को तोड़कर
उस मौन में उतर भी जाएँ
पर रहना कहाँ मुमकिन होता अनंत तक वहाँ !
जो किसी वजह से या यूँ ही बेवजह
सांझ होते ही कोई अपना
इस खंडहर-मन से बाहर ही तरफ जाता है,
तो फिर किसी साक्षी-सी मौन
मैं वक़्त के आगोश में
उसे समाते देखा करती हूँ।
बस फर्क इतना है कि
ढहे खंडहरों के मलबों में भी
एहसास बसते हैं
जो यादों की परतों के तले
कुचलकर मार दिए जाते हैं।
खंडहर खड़ा रहता है साक्षी बनकर
खुद में अथाह प्रेम लिए
फिर एक पूरी अनंतता के लिए।
उस खंडहर का दर्द मन में समाये,
जाने किस मौन में यूँ बहा करती हूँ,
भरे बाजार भीड़ को चीरकर
जाने किसकी तलाश में…
अकेली मैं रहा करती हूँ।
#समर्पित
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