कबीर | बचपन में ज़रा चिढ़ते थें इनसे | ”काल करे सो आज कर” वाले काका से हम आलसियों की ज़रा कम ही बनती थी | कबीर के साथ रिश्ता बस इतना सा था कि काका के दोहे छोटे होने की वजह से याद हो जाते थें और परीक्षा निकलवा देते थें |

स्कूल की हिन्दी की किताबों से निकल रुबरूँ तब खड़ें हो गयें जब कुछ महीनों पहले उनकी लिखी ”युगन- युगन हम योगी ” सामने आई | यह तो तुरंत समझ आ गया था कि कबीर सिद्ध थें | क्यूँकि उन बीस पंक्तियो में उन्होनें पूरा ब्रह्म ज्ञान समेट दिया है | हलके शब्दों में दोहा लिख जाने वाले कबीर असल में बहुत भारी थें |

सिद्धों की सबसे निराली बात यह होती है कि वह आपको अकेले नही छोड़तें | कबीर अलग नही थें | वह हाथ पकड़ कर आपको अपनी गहराइयो में ले जायेंगे | कबीर से जितना मिलती गयी, वह उतने गहरे होते चले गयें | इसलिये यह कहना कि मैनें कबीर को जान लिया, बेइमानी होगी | जितनी मेरी छोटी बुद्धि समझ पाई है, गुरूआज्ञा से उतना ही साँझा कर पाऊँगी | बाकी सिद्धों की परंपरा- उनकी इच्छा |

”बूँद समानी है समुंदर में, जानत है सब कोई | समुंदर समाना बूँद में, बुझे बिरला कोई ||”
जब एक बूँद समुद्र में समा जाती है, तब हर किसी को समझ आ जाता है कि भई, छोटी-सी अस्तित्व- विहीन बूँद का विराट में समा जाना स्वाभाविक है, लाज़मी है | पर जब खुद समुन्द्र एक बूँद में समा जाये, तो इस बात को बिरला ही कोई समझ पाता है | मीरा कृष्ण में समा सकती है | पर कृष्ण मीरा में समा गये ऐसा बोलोगे तो लोग पागल कहेंगे तुम्हें | क्यूँकि मनुष्य अपनी बुद्धि के बस में है | चेतना (consciousness) के बस मे नहीं | और बुद्धि सूक्ष्म को विराट में समाता हुआ तो देख सकती है पर विराट को सूक्ष्म में समाता हुआ नहीं | यह तो बस चेतना के स्तर पर ही संभव है |

भक्ति प्रेम की हद है; समर्पण की पराकाष्ठा है | नहीं! ”भगवान, मुझे पास कर दो तो हर मंगलवार चल कर मंदिर आऊँगी” या ”प्रिया हाँ कर दे भगवान तो तुझे प्रसाद चढाउँगा” इसकी बात नहीं हो रही है | व्रत-उपवास की भी बात नहीं हो रही | धूप-आरती की भी नहीं | भक्ति इन सबसे परे है | जब आपका आपके इष्ट के साथ संबंध प्रगाढ हो जाता तो इष्ट स्वयं आकर आप में स्थित हो जाते हैं | वेदान्त में इसे अद्वैत कहा गया है | सूक्ष्म के मन में जब विराट समा जाये, जब भक्त या साधक के भीतर परब्रंह्म जागृत हो जाये, तो भक्त और भगवान या साधक और इष्ट में कोई भेद नहीं रह जाता | दोनो एक-प्राण हो जाते हैं |

शिव पुराण में एक प्रसंग आता है |

नन्दी की भक्ति से प्रसन्न होकर महादेव ने उन्हें वरदान दिया, ”जो भी तुम्हारे कानो में अपनी समस्या कहेगा, वह सीधे मुझ तक आएंगी और मैं उन्हें दूर करूँगा |”
और हम बिना अर्थ समझे कल्पों से मंदिर जाकर नन्दी को परेशान करते आ रहे हैं | कभी नहीं सोचा हमनें कि नन्दी के कान की बातें महादेव तक जाने का अभिप्राय क्या है | भक्ति अपने चरम में अद्वैत हो जाती है | भक्त और भगवान उस चरम पर अभिन्न हैं | सूक्ष्म का विराट में समाने का एक अर्थ विराट का सूक्ष्म में समाना ही तो है | पर इसे कोई बिरला ही समझ पाता है |

”सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥”
(वही तुम्हें जान पाता है, जिसे तुम जानने देते हो | और जैसे ही कोई तुम्हें जान जाता है, वह ”तुम” हो जाता है |)