मुझे आज़ाद ज़मीं के पन्नों को पढ़ना हैं
मुझे भी दीदार-ए-संविधान करना है
ये नफ़रत की राजनीती अब देखी नहीं जाती
मुझे भी राजनीती के कुछ हिस्सों को बदलना है
आओ जमकर कहें बुरा जो जितना बुरा है
क्यों हमें भी नफ़रत की आग में जलना है
जिनके बहे लहू उनकी याद नहीं मिटने देंगें
बस यही जोश अपने देश में भरना है
क्यों डरें किसी के डराने से अब हम
अब तो बस आस्तीन के सांप को डरना है।
Inspire to Rahat Indori Sahab, (The Indian Poet)
नज़्म लिखू मगर किस पर
नज़्म लिखू मगर किस पर
चराग़ तो सभी जल रहे हैं
चैन से गुज़र रही है ज़िन्दगी
ख़्वाब भी अच्छे पल रहे हैं
नज़्म लिखूं मगर किस पर
चराग़ तो सभी जल रहे हैं
दुनिया में कोई गम नहीं
हम भी खुशियों में ढल रहे हैं
नज़्म लिखूं मगर किस पर
चराग़ तो सभी जल रहे हैं
हाथों ने कलम भी ठीक पकड़ी है
पाँव भी अच्छे चल रहे हैं
नज़्म लिखूं मगर किस पर
चराग़ तो सभी जल रहे हैं
जवानी में दम में मौज़ूद है
और बुढ़ापे में भी ढल रहे हैं
दर्द होकर भी जिंदगी में दर्द नहीं होते
माँ-बाप अगर होते तो हम नहीं रोते
हमारी चोट भी हम पर असर नहीं करती शायद
दुनिया से कह दो उनको भी कोई रोके।
करता रहा तरक्की जब तक
मेरी माँ मेरी मेरे पास थी
अब आदत भी छूट गई
और छूट गई जो आस थी।
आसमानों से मेरा पुराना रिश्ता है
जमीं से भी मैंने नाता जोड़ रखा है
कुछ कमी है तो दुनिया में है साहब
बे-वजहों का दामन मैंने छोड़ रखा है।
टूटी हुई है चारपाई
नफ़रत नहीं सीने में
कोई दुश्मन भी अगर आ जाए
जगह बहुत है इस करीने में।
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