समस्त ब्रम्हाण्ड कर्म से बंधा हुआ है और कर्म से ही आगे की ओर बढ़ रहा है और यह सत्य है। हर कर्म का फल होता है जिसका परिणाम भविष्य में देखा जा सकता है।

प्राणी जो कुछ भी देखता है, सुनता है, समझता है, उसकी कद काठी सब कुछ उसका अपना सत्य है और वह भी उसके अपने कर्मों का सत्य है।

सत्य को किसी भी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती और किसी के नकार देने से परिवर्तित नहीं होता। सत्य पर असत्य का आवरण डाल कर भ्रम का माया जाल तो फैलाया जा सकता है परन्तु सत्य स्थिर रहता है। प्रतीक्षा करता है अपने ऊपर पड़े आवरण के उठने का। सत्य पर से जब असत्य का आवरण हटता तब ऐसा प्रतीति होता है मनो सूर्य के प्रकाश से रात्रि का अंधकार समाप्त हो गया हो और सब कुछ स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगता है।

जो सत्य को जानने की जिज्ञासा रखते है उनको कठिन तप करना पड़ता है क्योंकि उस व्यक्ति मे अभी स्थिरता नहीं है और बिना स्थिर हुए सत्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। जब कोई तप करता है सत्य को जानने के लिए तब उसे अपने द्वारा किये गये कर्मों के कारण उत्पन्न भोगों का भोगता होने का बोध होता है जिसे प्रारब्ध कहते है और इसका सर्वोच्च उदाहरण श्री राम का जीवन है। जब वह प्रारब्ध भोग लेता है और उसे संसार का मोह नहीं होता तब वो सत्य में स्थित हो जाता है।

सत्य सब कुछ देखता है और स्थित हो कर प्राणियों द्वारा किये गए कर्मों का फल देता है फिर वह शुभ हो या अशुभ।

जो प्राणी अपने मोह, वासना, लोभ आदि अवगुणों के वशीभूत हो कर किसी दूसरे प्राणी को कष्ट या उसका अहित करता है वह प्राणी चाह कर भी उससे उत्पन्न होने वाले फल से नहीं बच सकता, भविष्य में चाहे वह अच्छे कर्म कर यह सोच ले कि वह अपने पुराने पापों से मुक्ति पालेगा। हाँ ऐसा भी नहीं होगा कि उसको अपने अच्छे कर्मों का फल न मिले वह भी फलित होगा। हर एक कर्म अपने से अलग होता है। यही कर्मों का सत्य है।

सत्य अपने आप में एक गुण है जो मनुष्य को ज्ञान और मुक्ति की ओर ले जाता है। सत्य है जो साकार है और जो निराकार है वह परम सत्य है। निराकार सत्य को जानने के बाद और कुछ भी जानने की आवश्यकता नहीं रहती है। ऐसा इसलिए कि वह प्राणी अन्तर करना भलीभाँति सीख जाता है कि कौन से कर्म उसके अज्ञानता के कारण वह कर रहा है और कौन से कर्म करने की आवश्यकता है। सत्य में स्थित प्राणी संसार में रहकर कर्म करता है और उसके परिणामों को स्वीकार भी करता है और उससे किसी भी तरह से नहीं बंधता इसका सर्वोच्च उदाहरण श्री कृष्ण है। जब महाभारत का युद्ध समाप्त होने के पश्चात जब श्री कृष्ण दुर्योधन की माता गान्धारी के पास गए तब उनहोंने श्री कृष्ण को श्राप दिया कि जिस प्रकार उनका परिवार समाप्त हुआ है वैसे ही श्री कृष्ण का परिवार भी समाप्त हो जायेगा जिसको श्री कृष्ण ने स्वीकार किया।

सत्य को स्वीकार लेने से प्राणी के अन्दर उठ रहे द्वन्दों का नाश होता है और शांति की ओर बढ़ता है और सत्य को नकार देने से  मोह और मायाजाल में फँस जाता है और अशांति ही प्राप्त होती है ।

सत्य का पालन करना अपने आप में एक कर्म है जो ज्ञान और मुक्ति के मार्ग तक ले जाता है और कर्म संसार का सत्य है।

समस्त ब्रम्हाण्ड सत्य और कर्म के कारण ही अस्तित्व में है और गतिमान भी। जब सब कुछ स्थिर हो जायेगा तब कर्म नहीं रहेगा  और सब कुछ सत्य में विलीन हो जायेगा । यह भी एक सत्य है।

॥ सत्यम शिवम् सुन्दरम ॥

॥ ॐ नमः शिवाय ॥