पुस्तको के समूह मे एक पुस्तक ऐसी भी होती हैं जो हमारा चुनाव करती हैं। शायद हम उसे पंसद आ जाते हैं। या फिर वो हमारी स्वयं की होती हैं। जिसे धीरे-धीरे ही पढना होता हैं अगर ज्लदी की तो खोना तय हैं।धीरे-धीरे करके उस के हर पृष्ठ और पृष्ठ पर अंकित वर्णो की सात्विकता, सहजता का त्याग कहीं मूल्यों से अधिक तो नहीं हुआ है?
कहीं इन वर्णों का भाव केवल आडम्बर तो नहीं ?
क्या इनका अर्थ वास्तविक हैं?
ऐसे अनेक प्रश्नो के उत्तर का द्वन्द रहता हैं। परन्तु हिन्दी भाषा की समृद्धता ओर प्रत्येक शब्द की भाव गहनता हृदय में दिलासा दिलाती रहती है। कि यदी आडम्बर भी हुआ होगा इन वर्णों का भाव तब भी ये किसी न किसी रूप में दीर्घ नहीं तो सुक्ष्म ही सही,असर तो करेगा। देरी से ही भला किंतु असर तो होगा ही क्योंकि ये भाषा ही ऐसी है जिसमें की हर एक प्रत्यक्ष स्थिति/कारणों के पीछे अनेक सहकारण होते हैं या अप्रत्यक्ष कारण भी होते हैं जैसे कि झूठ के पीछे छुपा हुआ सच,ओर द्वेष के भीतर प्रेम।
अन्य भाषाओं में अंग्रेजी भाषा सीखी परन्तु उस भाषा में थोड़ी ज्ञान को भीतर समेटा जा सकता है। वो भी उसके लिए जिसके मुख का प्रथम स्वर ही हिंदी मे था। अग्रेजी भाषा तो मेरे लिए नाटकीय साबित हुई। जैसे की नवजात तोते ने मिठ्ठू मिठ्ठू बोलना छोङ कर राम राम बोलना सीखा हो जिसका उसके लिए कोई अर्थ नही है। अगर खुद को,समाज को समझना है तो हिंदी को समझना होगा। यह वही भाषा है जिसमे सब आम है ना की कोई खास क्योकि भारत मे,भारतीयो मे सब में हिन्दी ही तो आम है। यह वही हैं जिससे प्रत्येक नागरिक चाहे विदेश मे हो,किसी भी पंत, सम्प्रदाय से हो खुद को भारतीय कहता है। आजादी के पश्चात राष्ट्र एकीकरण मे हिन्दी भाषा की भूमिका को नकारा नही जा सकता है। वैश्वीकरण के युग मे,भाषा भी धीरे धीरे बदल रही है।जिसके प्रभाव से मैं भी अछूता नहीं हूँ।परन्तु मुझमे हम सब मैं हिन्दी ही मूल है जो कि शायद अतिंम साँस तक बनी रहेगी।
अंतिम कुछ पंक्तियाँ-
“क्या है मेरा देश,इससे क्या मेरा नाता,,
मातृभाषा ने यही सिखलाया,
हिन्द है तेरा देश,प्रेमार्थि का अटूट नाता।।”
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