1. I am NOT saying serving saints in the Kalyuga is not right. I just said that according to our scriptures, chanting the holy name is the way out in Kalyuga. श्रीमद्भागवत का कथन है कि कलयुग दोषों का भंडार है। इसमें एक बहुत बड़ा सद्गुण यह है कि सतयुग में भगवान के ध्यान, तप और त्रेता युग में यज्ञ-अनुष्ठान, द्वापर युग में पूजा-अर्चना से जो फल मिलता था, कलयुग में वह पुण्य श्रीहरि के नाम-संकीर्तन मात्र से ही प्राप्त हो जाता है। This does NOT mean that we don’t serve the righteous ones. The post starts with “There must be some reason why the scriptures glorify Naam Japaa the most in Kalyuga…”. The tone, here, wants to suggest that surely the scriptures anticipated how most of the Babas would be in Kalyuga (and how most of the devotees would be, too!)
  2. We are blessed to have a true Siddha as our Guru. But not everyone is that lucky. I see people revolving around Babas like flies around a sweet. Those Babas don’t even follow their own preaching and keep preying on the gullibility of their sincere devotees.
  3. This post was written a few years back as a reaction to the ones who abuse the Saffron and to the ones who keep going from Darbars to Darbars just for their petty wishes. It’s not wrong to ask. Whom shall we ask from if not our Gurus and God! But when we love someone, we don’t put conditions. We are free to ask. But if we don’t get what we asked for, we DO NOT leave the one we love. None of the prayers are unanswered. Sometimes, the answer is just ‘No, it will harm you’ or ‘Not yet, my child.’

    I hope you will understand the true purpose of this post. Kindly pardon me if this post hurt anybody’s feeling. The intention is NOT at all to hurt anyone. 🙂 🙂
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    कोई तो कारण होगा कि कलयुग में नाम-जप को श्रेष्ठ मार्ग कहा गया है, संत-सेवा को नहीं। इस कलयुग में मनुष्य जब भी संत-सेवा को अग्रसर होता है उसके पीछे उसकी इच्छाएं होती है- “मेरी इस सेवा के बदले यह संत मुझे धन-धान्य और सुख से भर देंगे”; “मुझे पुत्र की प्राप्ति होगी”; “मेरा रुका प्रमोशन हो जाएगा”; “मुझे अच्छे वर की प्राप्ति होगी”; ”virgin लड़की से शादी हो”; ”मेरी सास से पिंड छूटे”; ”चोर पड़ोसी का घर लूटे”!

    और कलयुगी संत? इस सेवा को प्राप्त कर उनके भीतर पल रहा अहम् पोषित होता है। अब वास्तविक संत का मिलना उतना ही दुर्लभ है जितना की निस्वार्थ सेवा कर सकने वाला शिष्य या भक्त। यहां अहंकार के आगे लोभ मुजरा कर रही है और नाम इसको सात्विकता और भक्ति का दिया जाता है।

    संत का धर्म है समाज का उत्थान करना। पर आज साधु का चोगा पहने यह लोग मनुष्यों के डर पर अपना आसन जमाये उनकी भावनाओ का धंधा करते हुए पाए जा रहे हैं। किसी की भावनाओ से खेलना एक जघन्य अपराध है। गेरुए वस्त्र के मान को इससे अधिक क्षति आज से पहले कभी नहीं पहुंची!

    मनुष्यों अपने विवेक को जगाओ! डर के वशीभूत होकर समाज के इन ठेकेदारों को अपने ऊपर राज मत करने दो।

    संत वह कतई नहीं जो सीना थोक के कहे, “मैं संत हूँ, मेरी सेवा करो, मेरे पद-रज से तुम्हारा घर पवित्र हुआ।”

    सच्चे संत की सच्ची साधना उसे अहंकार से दूर करती है। एक असली संत को, एक सच्चे साधक को तुम्हारी सेवा से कोई मतलब नहीं क्यूंकि उन्हें अपने अहम् की पूर्ती नहीं करनी होती। उनकी जुबां तेज नहीं होती, तेज उनका आभामंडल होता है। ऐसा वास्तविक संत मिले तो स्वार्थ परे रखकर ही सेवा करना। उनका तप-बल तुम्हे मुक्त करेगा।

    और जो लोग गेरुए वस्त्र का धंधा करे उनके गांजा-चिलम पर पैसे लुटाने की जगह किसी भूखे को खाना खिला देना। यह ढोंगी बाबाओं की अहम्-पूजा से कई अधिक श्रेयस्कर है।