मेरा बचपन चंदा मामा, अमर चित्र कथायें और कल्याण पढ़ते हुए बीता। चंदा मामा और कल्याण तो मेरे दादा जी के यहाँ इस तरह जिल्द चढ़वाकर सहेजा जाता था, जैसे हमारे घरों में रामायण और श्रीमद्भगवद्गीता को सहेजा जाता है। अमर चित्र कथाएं मैंने किस प्रकार जुटायीं, मुझे याद नहीं, किन्तु इतना अवश्य याद है कि शायद ही ऐसी कोई अमर चित्र कथा हो, जो मैंने ना पढ़ी हो। शेरों के शावकों के साथ खेलते भरत की कथा हो या द्रौपदी के चीर हरण की, या फिर धन्ना जट के बुलाने पर श्री कृष्ण के प्रकट होने की कथा हो, सभी कथाएं चित्रों के साथ एक अपनी अलग ही अनूठी दुनिया में मुझे ले जाते, लेकिन कुछ प्रश्न होते जो साथ रह जाते।

उस समय तो मेरा बालक मन जो कुछ समझ पाता, समझ लेता और उसके साथ अपनी ही भावनाओं का मधुर अबोध सा घटनाक्रम अपने मन में बुन लेता। अपने प्रश्नों के उत्तर भी स्वयं ही पा लेता, और जो प्रश्न, प्रश्न ही रह जाते थे वे वैसे ही मन की खूंटी पर लटके रहते।

उन्ही में से एक प्रश्न था कि, श्री कृष्ण ने अपनी सखी द्रौपदी की इतनी अपमानजनक अवस्था तक पहुँचने की प्रतीक्षा क्यों की? क्या वो इस बात की प्रतीक्षा कर रहे थे, कि द्रौपदी को दिखा दें कि देखो आख़िर में मैं ही काम आया, क्या उसमें इतना घमंड था? हर कहानी के साथ इसी तरह के और भी प्रश्न होते। मैंने इन प्रश्नों के उत्तर कभी किसी से नहीं पूछे, बस ये मेरे मन में ऐसे ही लटके रहे, कभी भूले, कभी बिसरे, और कभी मुखर।

कई सालों बाद एक दिन वाट्सएप पर ही एक मैसेज पढ़ा, पूरा मैसेज तो याद नहीं, पर इतना याद रहा कि उस मैसेज में द्रौपदी ने यही प्रश्न अपने सखा श्रीकृष्ण से पूछा, पूछती हैं- “ क्यों सखा इतनी देर क्यों की? जब दु:शासन मेरे केश पकड़, घसीटकर सभा में ला रहा था, उसी समय क्यों नहीं प्रकट होकर मेरे सम्मान की रक्षा की? क्यों जब दुर्योधन ने अपनी जंघा पर मुझे आ बैठने को कहा, आप न आए? क्यों जब दु:शासन ने मेरा आँचल मेरे वक्ष से हटाया, आप ना आए?

श्री कृष्ण ने कहा, “सखी, मैं न आया क्योंकि तुमने ही न बुलाया, तुम हर किसी से रक्षा की याचना करती रहीं, तुमने भीष्म को पुकारा, तुमने धृतराष्ट्र से गुहार लगाई, तुमने अपने पतियों से रक्षा की माँग की, तुमने दुर्योधन और दु:शासन तक से उम्मीद लगायी, तुमने स्वयं ही अपना आँचल पकड़ अपनी रक्षा की कोशिश की, मेरी याद तो तुम्हें सबसे अंत में आयी, नटखट नंद किशोर ने मुस्कुराती सी आँखों वाले भोले से अंदाज़ में कहा, “पर ज्यों ही तुमने मुझे पुकारा मैं आ गया।”

मुझे कुछ-कुछ उत्तर मिला, इस उत्तर को मेरे मन ने कितना आत्मसात किया पता नहीं, पर ये उत्तर मेरे मन में ठहर सा गया। ये ज्ञान,मेरा ज्ञान बना या नहीं, ये जानना अभी बाक़ी था।

कहते हैं कि अनुभव ही सच्चा ज्ञान होता है, सो ज्ञान होना शायद अभी बाक़ी था। प्रश्न का उत्तर तो मिला, परंतु वो मेरा अनुभव नहीं था, इसलिए जहाँ प्रश्न टंगा था उसी के बग़ल में उत्तर भी टंग गया।

अब बारी थी अनुभव की, जो कृपा से मिला, उन्ही की कृपा से …

अमेरिका की बढ़िया सी नौकरी छोड़कर मैं भारत लौट आयी थी। मैं जानती थी कि भारत में मेरे पास ना नौकरी है न घर। लेकिन बस धुन सवार थी कि वापस जाना है, अपने गुरुदेव के पास, अपने देश, वापस जाना है। थोड़ी बहुत बचत थी, लगा कि काफ़ी है, फिर नौकरी तो मिल ही जाएगी। मेरे मन ने ज़िद पकड़ ली थी। मैंने किसी की न सुनी, ना परिवार की, ना दोस्तों की। और अमेरिका में जो भी कुछ था बेचकर या बांटकर भारत वापस आ गई।

भारत आते ही सच्चाई ने अपना चेहरा दिखाना शुरू किया। ना रहने का स्थाई ठिकाना, ना सोचने समझने का समय। समस्यायें इतनी तेज़ी से आतीं, एक से निपटती तब तक दूसरी, फिर तीसरी। ईश्वर की कृपा से कोई गंभीर समस्या नहीं आयी, लेकिन मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं कोई रोलर-कोस्टर में बैठी हूं।कभी मेरी मम्मी, और कभी बच्चे और उनसे जुड़ी कोई बात, देखते देखते चार महीने बीत गए। ऐसा लग रहा था जैसे सब कुछ हाथ से छूट रहा है। और पैसे तो इस तरह से ख़र्च हो रहे थे जैसे पैसों के घड़े में कोई छेद ना हुआ हो बल्कि किसी ने उसमें ज़ोरदार मुक्का दे मारा हो।दिन दूनी रात चौगुनी गति से पैसा ख़र्च होना किसे कहते हैं मुझे पहली बार समझ में आया। पहली बार इसलिए, क्योंकि पहली बार मेरे पास कोई आमदनी नहीं थी, पर ख़र्च तीन गुना था। मेरा और दोनों बच्चों का, कॉलेज फ़ीस, फ़ोन, हॉस्टल, वग़ैरह वग़ैरह। ओफ़! यही सब तो लोग मुझे समझा रहे थे। पर मैं तो मैं हूँ, नहीं सुनी किसी की। रहने का कोई स्थाई ठिकाना नहीं, कौन सा सामान कहाँ पड़ा है ये भी पता नहीं। मन में एक विचित्र सी ही अव्यवस्था ने मकड़जाल बनाना शुरू कर दिया था। लगा कि नौकरी ढूँढनी पड़ेगी, और रहने के लिए एक स्थाई जगह भी देखनी पड़ेगी। पर जगह तो तब हो, जब नौकरी हो। सो नौकरी की तलाश शुरू हुई।

हर जगह बस एक ही जवाब; अभी कोविड (दूसरी लहर) के कारण हम वेकेन्सी नहीं भर रहे। एक तरफ़ तो बच्चों की पूरी फ़ीस के साथ उनकी ऑनलाइन क्लासेस का अतिरिक्त इंटरनेट का ख़र्च, पर उसी कॉलेज में जब नौकरी के लिए अप्लाई करूँ तो, कोविड…

मन घबराने लगा, पहले थोड़ा, फिर बहुत ज़्यादा। तब शुरू हुआ सिलसिला फ़ोन घुमाने का। हर दोस्त, हर सहकर्मी, पूर्व सहकर्मी, पूर्व नियोक्ता सब को फ़ोन कर काम के लिए आग्रह कर दिया। आस पास की हर संस्था में आवेदन भेज दिया, पर कहीं से कोई उत्तर नहीं।इधर बच्चों का जब भी फ़ोन आता उनकी कोई न कोई आवश्यकता होती। मैंने उन्हें भी कोई पार्ट टाइम जॉब ढूंढने को कहा। चिड़चिड़ाहट बच्चों पर भी निकलती और माँ पर भी। रोने- धोने के साथ ही हर बातचीत का अंत होता। मैंने फ़ोन की कॉन्टैक्ट लिस्ट में से कोई भी ऐसा संभावित कांटेक्ट नहीं छोड़ा जिसे मैंने नौकरी के लिए कहा नहीं। एक कॉलेज में इंटरव्यू के बाद उन्होंने दो दिन बाद जवाब देने को कहा, पर ना तो जवाब दिया ना ही मेरा फ़ोन उठाया। जो भी कुछ हो रहा था मेरी उम्मीदों के बिलकुल विपरीत था।

मैंने तो सोचा था कुछ दिन मज़े से आराम करूँगी, साधना करूँगी, फिर जहाँ भी आवेदन करुँगी देखते ही देखते मुझे जॉब मिल जाएगा। मेरा प्रोफ़ाइल देखते ही एम्प्लॉअर मुझसे पूछेगा, आप वेतन कितना लेंगी मैडम? पर यहाँ तो औंधे मुँह गिरे। आसमान से गिरे, खजूर में भी ना अटके, चित् गिरे।

बढ़िया जॉब, जमा जमाया घर छोड़ने की कसमसाहट मुँह चिढ़ा रही थी। मन की इस घबराहट ने बेचैनी, और फिर कुछ कुछ अवसाद का सा स्वरूप ले लिया।आश्रम का सुंदर बग़ीचा, फूल पौधे, पहाड़, गिरी-गंगा, सब आँखों के सामने थे, पर दिखाई नहीं देते थे। ये तो वही आश्रम है, जहाँ की फ़ोटो मैं अपने डेस्क टॉप पर लगाकर आहें भरती थी कि कब मैं यहाँ आऊँगी? कब मैं मंदिर की रेलिंग से टिककर श्रीहरि को देखूँगी? मैं तो यहाँ हूँ, फिर इतनी बेचैनी? ये क्या हो रहा है मुझे?

मेरी बेचैनी ने चरम रूप ले लिया। मुझे या तो ग़ुस्सा आता था या रोना। दिमाग़ ने सोचने समझने की क्षमता छोड़ दी, क्योंकि मन बेचैनी की एक सीमा को पार कर अवसाद की सी हालत में पहुँच गया, जहाँ अपना ही मन अपना दुश्मन बन, हमें खाना शुरू कर देता है।

सुबह- शाम श्रीहरि की आरती में जा रही थी, श्रीहरि मेरे इतने पास कभी न थे जितने कि अब, पर मुझे उनकी याद ना आयी। पर कल शाम अचानक वो उत्तर, जो कहीं मन में टंगा था, उभर आया, मैंने श्रीहरि को तो पुकारा ही नहीं… कि वो मेरी मदद करें, मैंने भगवान को तो पुकारा ही नहीं।

सुबह होते ही मैं श्रीहरि के सामने खड़ी थी। एक समर्पित पुकार क्या होती है, मुझे समझ में आया। उसे समझाना तो मुश्किल है, पर वो कुछ इस तरह होती है कि जब आपको अचानक अपनी खोई हुई अति बहुमूल्य वस्तु मिल जाती है आपके भीतर एक अजीब सी शांति होती है। जब आप कुछ माँग नहीं रहे होते, बल्कि जब आपको कुछ प्राप्त हो जाता है।

श्रीहरि से मैंने जब प्रार्थना की, तो अब मुझे पता था कि मैं उनसे नौकरी माँगने नहीं गयी। ये बिलकुल वैसा था कि मैं तो क़बूलने गयी हूँ कि मैं तो आपको भूल ही गई थी।

भगवान हमारे कितने क़रीब होते हैं ये तो हमें नहीं पता होता, पर अगर हम पूरी सच्चाई से अपने दिल पर हाथ रखकर स्वयं से पूछें कि क्या हम भगवान को सबसे आख़िरी में ही याद नहीं करते? जब हम सब ओर से हार जाते हैं, अंत में, सबसे अंत में हम भगवान को याद करते हैं। उससे भी महत्वपूर्ण बात यह, कि हम भगवान को समर्पित होकर याद नहीं करते, हमारा अहं तब भी पीठ सटाए वहीं खड़ा होता है।

मैं भी कितना भटकी, पर उनको याद नहीं किया। याद भी किया तो सबसे आख़िरी में। जहाँ कोई समझावन, कोई ज्ञान काम नहीं आ रहा था, वहाँ पर श्रीहरि की याद काम आ गई। श्रीहरि से मैंने कुछ ना माँगा, ऐसा तो नहीं कहूंगी, पर हाँ, नौकरी नहीं माँगी, सहायता माँगी, और कहा मुझे तो बस सालों पुराने प्रश्न, और उसके थोड़े कम पुराने उत्तर का अनुभव अपने अंतर्मन में हो गया।

जो अनुभव मुझे हुआ, वो मैं कभी ना बता सकूंगी, और बताने का अर्थ ही क्या है? अनुभव तो पूर्णत: शुद्ध स्वयं का ही होता है। मेरे पास अब मेरे प्रश्न का उत्तर, और उसका स्वयं का शुद्ध अनुभव था।

जिस अवसाद के कारण मुझे शारीरिक कमज़ोरी तक हो गयी थी और चक्कर तक आने लगे थे,वो ऐसे छू मंतर हो गये जैसे अँधेरे कमरे में बल्ब जलने से अंधेरा दूर हो जाता है। और शायद आपको विश्वास न हो, कि सिर्फ़ कुछ चंद पलों में ही, मंदिर से डायनिंग हॉल तक की दूरी के बीच, मुझे कोई मिला, हमारी बात हुई और उन्होंने तुरंत मुझे काम दे दिया।

ईश्वर चमत्कार नहीं दिखाते, ईश्वर का हमारे हृदय में अनुभव, ईश्वर के चमत्कार का अनुभव होता है।

और हाँ! एक और प्रश्न, कि क्या भगवान सचमुच प्रकट होते होंगे, का उत्तर भी कुछ-कुछ मिला, कि धन्ना जट के बुलाने पर वो ज़रूर झट से
आए होंगे, ये बात अब उतनी अविश्वसनीय नहीं लगती, लेकिन अनुभव अभी बाक़ी है।

मैं दौड़कर वापस श्रीहरि के पास जा खड़ी हुई, वो वैसे ही नटखट, मुस्कुराती सी आँखों वाले भोले से अंदाज़ में हँस रहे थे।