जीवन की शुरुआत से ही तू मुझसे छिप छिप कर अपना महत कार्य कुशलता से करता आ रहा है। मुझे इसकी खबर भी नहीं थी कि तू है भी? तेरे कई-कई नाम मैंने सुने हैं, कई-कई रूपों को देखा है, कई प्राथनाओं का, गीतों का, भजनों का, मंत्रों का उच्चारण कर अनजाने में तुझे बुलाने की कोशिश की है। मैं भी एक वैसा ही इंसान था जो अपने भाग्य से हमेशा कुछ ज्यादा चाहता था। मगर अब मेरी चाहतों में सिर्फ एक ही चाहत मुझे दिखाई देती है जो तेरी चाहत है, तेरी। बाकी सब मेरे ही बनाए गए जाल है जिनमें मैं खुद को बाँध रहा हूँ, जिन्हें अब मात्र एक छलावे के रूप में देख पा रहा हूँ।
हे, शिव, महादेव, नीलकंठ, शंभू, आदियोगी, उमानाथ, कैसे पुकारूँ मैं तुम्हें कि तुम आ जाओ और मुझसे इस मैं-पन को छीन लो। लेकिन इतना मैं-पन भी शेष रहने देना कि तुम्हारी महिमा को देख पाउं, तुम्हारे देदीप्यमान मुख की कान्ति को एक पल देख सकूं जिसकी प्रशंसा करते सभी शास्त्र नहीं थकते, तुम्हारे ललाट पर बहती आग देख सकूँ फिर चाहे मेरा स्व भी उसमें जल क्यों न जाए, तुम्हारे कंठ की नीलिमा देख सकूं ताकि उस हलाहल का अहसास हो सके जो सभी बुराइयों और पतन के विचारों का सबसे सघन रूप है।
मुझमें इतनी शक्ति और क्षमता नहीं कि बिना तुम्हारे आशीर्वाद और सहारे के एक निमिष के लिये भी तुम्हारी झलक पा सकूँ। वह क्षमता भी मुझे तुमसे ही चाहिए। क्यों चाहिए या क्यों तुम्हें देखना है – नहीं जानता। सभी इच्छायें धूनी में जलकर धूँआ बन चुकी हैं। अब केवल वह आग ही शेष है जो तुम्हारे लिये जल रही है और जलेगी, अंतिम साँस तक…
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