अंतर्द्वंद्व सनिग्धा जी के एक बहुत ही अद्बुध लेख को पढ़ कर मुझे इस विषय पर लिखने की प्रेरणा प्राप्त हुई, इस विषय पर अपने विचारो को लिखने से मै खुद को रोक नहीं पाया।द्वन्द —स्त्री और पुरुष दो भिन्न प्राणी?
बचपन में मुझे ऐसा लगता था कि स्त्री कमज़ोर होती है। यह मेरा कोई वास्तविक अनुभव नहीं था एक सोच थी।जब आप अपने मित्रों के साथ खेलना प्रारंभ करते है, समाज में कही न कही वही से एक भेदभाव सा प्रारंभ हो जाता है, जो शायद हमारी ही समझ और समाज से ही निरंतर चला आ रहा है।
परन्तु जैसे जैसे मै परिपक्व होने लगा, और मैंने स्वयं अनुभव किया कि स्त्री से विलक्षण प्रकृति की दूसरी कोई संरचना ही नहीं।
वो स्त्री ही है जो पुरे समाज की जननी है उनका धैर्य उनकी संवेदना और उनकी सच्चाई की तुलना उनके सम्मान में कमी करना होगा। पुरुष उनके समकक्ष कही भी दिखाई नहीं पड़ता इसलिए स्त्री से पुरुष की तुलना कैसे संभव हो सकती है ?
मेरे विचार से पुरुष और स्त्री दोनों ही प्रकृति की अलग अलग संरचना है जो आपस में काफी भिंन है — हमारे समाज को यह समझना होगा और इसे स्वीकार करना होगा।
कही न कही हमें स्त्री और पुरुष के इस भेदभाव से ऊपर उठाना होगा। जब हम तुलना में ध्यान देने लगते है तो हमारा पूरा ध्यान उससे तुलना में ही लग जाता है और फिर हम उनके गुणों में भेदभाव करना प्रारम्भ कर देते है और हम उसकी वास्तविक सुंदरता को देख ही नहीं पाते।
स्त्री स्वयं में स्वतंत्र है, उनकी शक्तियां विलक्षण है, उनके गुण अपने आप में पूर्ण है जहा तुलना की कोई सम्भावना ही उत्पन्न नहीं होती।
मेरे घर की बालकनी में एक कबूतरी ने दो नवजात को जन्म दिया। मैं उन्हें लगभग पिछले एक महीने से देख रहा हूँ।वो कबूतर सुबह से शाम तक अपने अंडे सेती रहती, शायद ही वो कुछ ही क्षणों के लिए वहाँ से जाती।हम उसे दाने डाल दते, वो सबसे पहले उन्हें खिलाती, उनकी रक्षा के लिए वो रात दिन वही पहरा देती।
उसका प्रेम और समर्पण ऐसा प्रतीत होता जैसे की कोई सच्चा योगी अपने ईष्ट के दर्शन के लिये पुरुषार्थ कर रहा हो। वो सच्चाई, वो निष्ठा शायद एक स्त्री में ही संम्भव है। इसलिए ही प्रकृति ने उन्हें ये गुण प्रदान किये , जो पुरुषों से बिलकुल विपरीत है, इसलिए स्त्री अतुलनीय है।
जिस दिन हमारा समाज यह स्वीकार लेगा, एक नया समाज आगे बढ़ चलेगा। और हाँ, सत्य तो यह है कि वो समाज हम ही है।
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