अभी कुछ समय पहले मैं TV पर राधा कृष्ण सीरियल देख रही थी। उसमें श्री कृष्ण धर्म और अधर्म के विषय में बता रहे थे, जिसे सुनकर मुझे बहुत अच्छा लगा, तो सोचा आप लोगो से भी यह साँझा कर लूँ । क्योंकि धर्म और अधर्म के बारे में हम सुनते बहुत हैं, मानते भी हैं, परंतु उसका ठीक से मतलब हम नहीं जानते।
भगवद्गीता का पहला शब्द धर्म है। महाभारत तब शुरू होता है जब अंधे बूढ़े राजा धृतराष्ट्र संजय से “धर्म के क्षेत्र” (धर्म-क्षेत्र) में होने वाले युद्ध के बारे में पूछते हैं। धृतराष्ट्र अपने पुत्रों को दुष्ट जानकर, चिंतित थे कि धर्म क्षेत्र का आध्यात्मिक प्रभाव पवित्र पांडवों का ही पक्ष लेगा। जैसे ही गीता का पहला अध्याय सामने आता है, अर्जुन भी धर्म के प्रभाव से सावधान हो जाते हैं। उन्हें डर है कि युद्ध में उनकी और कृष्ण की भागीदारी से धर्म का उल्लंघन होगा और नरक में स्थायी निवास होगा।
यह धर्म अधर्म की बातें संपूर्ण भगवत गीता जी में बार-बार आती हैं, तो पहले अध्याय के तीसरे भाग को समझने से पहले, हमें समझना चाहिए की आखिर धर्म और अधर्म क्या है? ।
धर्म और अधर्म
धर्म और प्रेम दोनों एक ही मुद्रा के दो पहलू हैं। यदि उनमें से एक भी निकल जाए तो दूसरा नहीं रह सकता। कभी सोचा है ऐसा क्यों? इसके लिए पहले आप को समझना होगा कि धर्म क्या है? धर्म वह जो संसार में हर व्यक्ति को एक दूसरे के साथ सुख और शांति के साथ रहने की प्रेरणा देता है। इस प्रेरणा का आधार है प्रेम। प्रेम, जो आपके भीतर किसी और के प्रति सम्मान को, करुणा को जगाता है। यदि प्रेम चला गया तो सर्वप्रथम नाश होगा सम्मान का और करुणा का। और जहां पर ना प्रेम है, ना सम्मान है, ना करुणा है, वहां धर्म कैसे रह सकता है? भौतिक इच्छाएं जागने लगती हैं, क्रोध जागने लगता है, अहंकार जागने लगता है और फिर आरंभ होता है अधर्म का।
इसलिए जो भी भावनाएं आपके भीतर प्रवेश करती हैं उन्हें करने दीजिए, किंतु चाहे जो भी हो जाए प्रेम को जाने मत दीजिए। इस प्रेम को अपने पास रखिए अपने हृदय में।
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