बेज़ुबान
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कभी कभी बेज़ुबान हो जाता हूं।
एक खाली कमरे की तरह
बिलकुल खाली हो जाता हूं।
ना किसी का इंतजार रहता हे
ना कहीं जाने की कोई वाजा।
कभी कभी जब बारिश होती हे
खिड़की के करीब जाता हूं।
मूंदे अपनी आंखे बूंदों को मेहसूस करता हूं
और उन बूंदों की तरह फिर
में भी बिखर जाता हूं।
कभी लिखने बैठू तो पता चलता हे,
मेरी जिंदगी कोई कहानी तो नहीं
एक छोटी सी कविता हे बस…
अगर कोई पड़ले
उसी में खुश हो जाता हूं।
कभी कभी लगता हे
कितना कुछ कहना हे, लेकिन
किसे कहूं?
जो समझे दिल की बात…
आंखे भी ठहर जाती हे
आंसू भी ना कुछ कह पाती हे
बस, कभी कभी यूंही बेज़ुबान हो जाता हूं।
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