कल से मेरे मन मे अनायास उठा-पटक चल रही थी, शायद अब भी है ! पता नहीं। मैं अपने और अपनी अकांछाओं के जाल में उलझा रहा, ऐसे की मुझे लगा मैं अब किसी भी काम का नहीं , सेल्फ डिस्ट्रक्टिव थॉट्स ज़ोरो पर थे। कारण क्या है? वो छोड़िए , निदान क्या हो सकता है इस पर चर्चा करते हैं। कुछ साल पहले जब मैं डिप्रेसन, फ्रस्टेशन जैसे शब्दों को सुनता और देखता की लोग इससे परेशान हैं ,तो मुझे लगता कि ये भी कोई बीमारी है….. नहीं पता था ,इसीलिए। जीवन किसी के लिए हमेशा खुशियों के बहार नहीं लाता , या जीवन मे कोई बहार नहीं होती ,जीवन बस जीवन होता है। जब अच्छे और मन को भाने वाले पल हुए तो हमे लगता है कि अहा! …क्या जीवन है, और जब मन अकारण निराश हो और उसके निराश होने का साफ-साफ कारण भी न ज्ञात हो तो स्थित बड़ी बद्तर हो जाती है । कुछ न कहने को होता है और न ही कुछ समझाने को बस ख़ामोशी और उसमें भिनभिनाती मन की नकारात्मक बातें। मन की ये बकबक कभी ख़त्म नही होती, आज एक बात समझ मे आयी कि, ध्यान में घंटे बिता लेना या जप में बेहतर करना, दोनो का मन के स्वास्थ्य से कोई लेना देना नहीं ,मन की बेहतरी के लिए तो कोई और ही चाबी घुमानी पड़ती है। ख़ैर, हर व्यक्ति को ये चाबी ख़ुद ही ढूंढनी/बनानी पड़ती है, और स्वयं ही ताला खोलने का प्रयास करना पड़ता है। मेरा मन ऐसे उखड़ा रहा कि कोई बात ही अच्छी न लगी, न ही जप ,न ध्यान और न भजन,मन का ये वीभत्स्य तांडव हर किसी के जीवन मे एक बार होता ही है और कष्टप्रद ये है कि ये देखना पड़ता है कोई स्किप का विकल्प नहीं होता । पहले मुझे लगा कि अब व्यक्तिगत बातों और उलझनों को दुनिया के सामने क्यों परोसना ,कोई मतलब नहीं, फिर मुझे लगा, मैं लिख तो लूं ही कम से कम ,शायद कोई नया आयाम खुल कर सामने आए। बहरहाल ,जब मन अशांत और उखड़ा हो तो किसी भी चीज में स्वाद नहीं आता, सब नीरस और अर्थहीन लगता है।
न प्रशंसा के शब्द भाते न ही गाली बुरी लगती। एक नज़रिये से ये भाव भी बुरा नहीं ,समता की स्थित को प्राप्त करना ही तो लक्ष्य है हर साधक का, किंतु ये साधना का परिणाम न होकर उलझन का निष्कर्ष है ,इसीलिए ये स्वादहीन है, फीका है।
जय श्री हरि🌺
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