सुनो,
एक कहानी सुुनाती हु तुमको , एक चिड़िया की, उसके पंंखो की।
उड़ती रहती थी अपनी धुन में हमेशा, किसी की परवाह ना किसी की चिंता ।
न जाने कहा से बचपन में ही सिख गयी थी, जो मिले उसमे खुश हो जाना।
बेशुमार प्यार पाकर बड़ी हो रही थी, पापा की परी माँ की दुलारी।

जब स्कूल जाना शुरू किया पंख औऱ खुल गए थे उसके, बन गयी थी सबकी चहेती।

धीरे धीरे वक़्त ने अपनी सुगबुगाहट शुरू की साथ मे कुछ और पंछी बढ़े,,उड़ान कुछ और तेज़ हो गयी।

हर काम मे आगे रहती,कभी इठलाती कभी इतराती ,देख सबको मुस्कुराती,सबको हँसाती।

कुछ और बढ़ी कुछ और समझदारी आ गयी,जो आज़ाद थी खुद में ही कैद सी हो गई।

डरने लग गई थी समाज की सच्चाई से,उडने में कुछ डरती थी वो।

ना जाने क्यों खुद में ही खोने लग गयी थी,सहम गई थी बातों से दुनिया वालो की।

बचपन कही बहुत पीछे छूट गया था,वो खिलखिलाहट अब कुछ कम सी हो गयी थी।

खेर । वो वक़्त भी आ गया जब उसे जुदा हो जाना था।

अपने अपनो से बहुत दूर नई जगह जाना था।

चली गयी वो अपने उस बसरे को छोड़ कर,अब आती है पर जाने की तारीख पहले से तय करके।

रुकना बहुत चाहती है पर रुक नही पाती।वह घर जो कभी उसकी जान हुआ करता था,जान तो अब भी है वह उस घर की।

पर वक़्त अब बदल सा गया है उसके लिए।

अब उसकी हँसी में वो बात कहाँ रही, वो बचपन कही खो वय जिम्मेदारियों में।

आज भी कही सपने बाकी है दिल मे,जिन्हें चाह कर भी वो भुला ना सकी है अब तक।

पाप,माँ,भाई,बहन..सबकी आज भी उतनी ही चिन्ता करती है।बस अब बट सी गई है,कई हिस्सों में,उलझ सी गयी बै कहीं।

उसके अपनो की नज़रों में वो घर आज भी उसी का है, जहाँ उसने चलना ,गिरना औऱ संभालना सीखा था।

जानती है वो ये बात की कही ना कही अब वो खुद बदल सी गयी है।

रास्ते मे खो सी गयी है,अब वो ,वो नही जो हुआ करती थी।

कभी कभी सोचती है ढूंढ ले खुद को, फिर से लौट जाए बचपन में,लेकिन जिम्मेदारियों के तले रोज़ ये बात भूल जात है।

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