द्वंद्व युद्ध 

आखिरी बार मैंने द्वंद्व युद्ध दूरदर्शन पर महाभारत में देखा था, भीम और दुर्योधन के बीच। 

पर ज्याक्ति तौर पर इस किस्म के युद्ध में, हमारा भी काफी अनुभव रहा है।

कभी-कभी यह फर्क करना कठिन हो जाता है कि जीवन में द्वंद्व है, या द्वंद्व ही जीवन है?

पर कुछ एक मैं अपने द्वंद्व गाथा का मार्मिक चित्रण करने का प्रयत्न कर रहा हूँ।

तो बात कुछ यूँ है की, छुट्टियों के दिन जब कभी घर में रहते-रहते ऊबन हो जाती। तो यूं ही बाहर टहलने जाने का विचार कर लिया करता।

पर चलते-चलते अक्सर एक ऐसा मोड़ा आता, जहां चुनाव का बिगुल बजाना पड़ जाता। 

हालाँकि, इस चुनाव के उम्मीदवार बड़े आंतरिक थे।

एक का नाम दाएं था और दुसरे का बाएं।

और जीतने वाले को पुरस्कार के तौर पर हमारे निडर और तेजस्वि टाँगे भेट दी जानी थी। 

चुनाव की प्रक्रिया बेहद सरल और स्पष्ट थी, की पहले शुरुआत के कुछ क्षण, हमें सड़क के किनारे व्यतीत करने थे।

फिर क्या, 

कुछ समय उस मोड़ पर कहीं कोने में, हम खड़े हो गए। 

फिर कुछ और समय बाद आत्ममंथन में मेरे हाथ अपने जेब में सिक्के खोजने लगे। 

एक सिक्का मिला, और मैंने उनके दोनों चेहरों पर अपने उम्मीदवारों का नाम नियुक्त कर दिया। 

फिर क्या उसे अपने अंगूठे पर रखा, और भरी महफ़िल मे उछाल दिया। 

सिक्के ने अपनी यात्रा हमारे बंद हाथों में पूरी की और फिर आहिस्ता से हमने कब्जा खोला। 

नतीजे को देखते ही अंतर मन में एक जटिल विचार आया कि, 

“सुना है, सिक्के वाले खेल मे नतीजे पहले पर नहीं बल्कि तीसरे पर माने जाते हैं?”

फिर क्या? 

तीसरे वाले के इंतज़ार मे,

दूसरे वाला हमने बस फर्ज़ अदाई मे तमाम किया।

पर अब, नतीजा अपनी देहलीज़ पर खड़ा था। 

अब तीसरी बार और आखरी बार बड़ी उत्साह के साथ मैंने सिक्का उछाल दिया। 

एक बार फिर अपने धर्म का निर्वाहन करते हुए उसने अपना गंतव्य चूमा।

मैंने अपनी नजरें उठाई ही थी नतीजा देखने के लिए,

पर उसी समय वो नालायक बेहेक गया। 

उसने अपनी मंज़िल बिना बताये बदल कर, कलाई पर सजी घड़ी को देख लि। 

और फिर असहजता में, हमने सिक्के को बिन देखे ही उसे अपने घर छोड़ आये। 

फिर क्या,

दोनों दिशाओं का अध्ययन करने के उपरांत। 

अपने घर जाने वाली सड़क का चयन कर निकल पडे।

हर युद्ध कुरुक्षेत्र पर नहीं होते। कुछ, मन के रण में लड़े जाते हैं।

जहाँ दोनों पक्ष अपने सिद्धांत पर अडिग खड़े हैं। 

और, द्वंद्व एक विडंबना।

जो आंतरिक भूमि को धूमिल कर देती है। 

जहाँ विचार विरोध के ऐनक लगाने का कारोबार मन का होता है। 

और मन ही वो अन्तः वेग है, जो फैसलों को बहा कर आपके समक्ष रखता है। 

द्वंद्व चाहे जहाँ हो, ठीक नहीं।

तरंग सागर की शोभा है, चाँद की चांदनी इसमें ओझल ज्ञात होती है।  

मन और रण मे इसका पहनावा, ठीक नहीं। 

कभी विराम, विचार और विश्राम आवश्यक हैं।  

इसीलिए द्वंद्व में नहीं, जीवन संतुलन में दिखती है।

ऐसे किस्से एक नहीं पर कौन से सुनाऊँ कोनसे नहीं मे, मैं पराजित नहीं होना चाहता। 

इस लिए यहीं आपसे आज्ञा लेता हूँ,

पर हाँ, 

आप ज़रूर बताना की क्या आपके साथ यह होता है? 

या केवल मैं ही हूँ जो धर्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय निकला?